दिनांक -26-05-2020
चुराकर चंद लम्हे फ़ुर्सत के
चली जाती हूँ मैं फिर वहीं
जहाँ लहलहाती है हरियाली
झूमती-नाचती है डाली-डाली
धानी चूनर ओढ़े धरती खिलखिलाती है
चेहरे पर उसके ओस झिलमिलाती है
बैठ जाती हूँ, आगोश में बच्चों जैसे
छिपी रहती हूँ सीप में मोती ऐसे
पंछी का मधुर स्वर आत्मा झंकृत कर
ले जाता है मुझे बचपन की डगर
डोलती थी मैं पगडंडियों पर आते-जाते
पशु-पक्षियों से थे मेरे कितने नाते
कल्पनाओं की उड़ान में भरती हूँ
चंद लम्हे फ़ुर्सत के मैं ऐसे जीती हूँ।
स्वरचित
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
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