मैं हरदम मस्तमौला और बिंदास हूँ
जीवन की आशा और विश्वास हूँ
वक़्त पड़े तो आजमा लेना ज़िंदगी
मैं आम नहीं हूँ खास हूँ।
दिशा जिन्दगी की, दिशा बन्दगी की, दिशा सपनों की, दिशा अपनों की, दिशा विचारों की, दिशा आचारों की, दिशा मंजिल को पाने की, दिशा बस चलते जाने की....
मैं हरदम मस्तमौला और बिंदास हूँ
जीवन की आशा और विश्वास हूँ
वक़्त पड़े तो आजमा लेना ज़िंदगी
मैं आम नहीं हूँ खास हूँ।
पहेलियाँ-पहेलियाँ, करें अठखेलियाँ
दिमाग की कसरत कराती हैं
ज्ञान का दीपक जलाती हैं
पहेलियाँ-पहेलियाँ, करें अठखेलियाँ
साधन अनोखा मनोरंजन का
बढ़ाती स्तर हमारी बुद्धि का
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बारह महीने मिलकर, एक साल बनाते हैं
एक साल में पूरे तीन सौ, पैंसठ दिन आते हैं
पहला महीना चैत्र, दूसरा बैसाख है
ज्येष्ठ है तीसरा, चौथा आषाढ़ है
बारह महीने मिलकर, एक साल बनाते हैं
एक साल में पूरे तीन सौ, पैंसठ दिन आते हैं
पाँचवा महीना श्रावण (सावन), छठा भाद्रपद (भादो) है
सांतवा है आश्विन (क्वार), आठवां कार्तिक है
बारह महीने मिलकर, एक साल बनाते हैं
एक साल में पूरे तीन सौ, पैंसठ दिन आते हैं
मार्गशीर्ष (अगहन) है नवमा, दसवाँ पौष है
ग्यारवां है माघ, बारहवां फाल्गुन है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
(1)
शीर्षक - चाय के किस्से
चाय के कुछ अपने किस्से हैं
कॉफ़ी की कुछ अपनी कहानी है
कितना भी सुपर कहो कॉफ़ी को
चाय तो हमारे दिल की रानी है
(2)
शीर्षक - चाय के बहाने
चाय के बहाने आते हैं याद अक्सर वो गुजरे जमाने
वो सर्दी की गुनगुनी धूप
गजक, मूँगफली और गरम-गरम सूप
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू (कर्नाटक)
वो बरसात की एक रात जूली कभी नहीं भूल पाई। आखिर कैसे भूलती वो , उस रात ने उसकी मिलन की बेला को जीवन भर की जुदाई में बदल दिया था। जूली किसी तरह चुपके-चुपके अर्जुन से मिलने पहुँची थी लेकिन उसके मोहल्ले के एक लोफर ने उसके रास्ते में दीवार खड़ी कर दी यानि उसके घरवालों को बता दिया और अर्जुन से मिलने का यह आखिरी रास्ता भी बंद हो गया। एक लोफर की दिल्लगी ने अपने इन्तेक़ाम के लिए दो प्यार भरे दिलों को हमेशा के लिए जुदाई की आग में झोंक दिया था। अब भूली-बिसरी यादें ही जूली के जीवन का सहारा थीं।
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक- 6-9-2020
विधा- लघुकथा
मुहावरा - नाच न जाने आँगन टेढ़ा
अर्थ- स्वयं कार्य न कर पाने पर उससे बचने के बहाने बनाना
आज अनु सुपर मॉम कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेने आई थी। दरवाजे से ही इतनी लंबी लाइन देखकर उसके तो हाथ पाँव फूल गए। अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। पूरे मोहल्ले में वह ढिंढोरा पीटकर आई थी कि यह कॉम्पटीशन तो वो ही जीतेगी। उसने अचानक से तबियत खऱाब होने का नाटक शुरू कर दिया। साथ में आया पति बुरी तरह घबरा गया और उसे तुरंत ही घर लौटा लाया। रास्ते भर अनु यही सोचती रही कि अब वह लोगों से क्या कहेगी। जैसे ही मौहल्ले के लोग पूछताछ करने पहुँचे तो अनु ने कॉम्पटीशन ऑर्गनाइजर पर ही आरोप लगाने शुरू कर दिए। वहाँ की अव्यवस्थाओं का हवाला देने लगी। तभी मोहल्ले की चाची बोलीं बेटा नाच न जाने आँगन टेढ़ा वाली बात मत करो। हम सबको पता है कि तुम्हारा नाच कैसा है। चाची की ये बात सुनकर सब लोग हंसने लगे और अनु बगले झाँकने लगी।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 07-09-2020
मेरे प्यारे शिक्षक
आप हैं मार्गदर्शक
ज्ञान की लौ जो लगाई मज़ा आ गया
कच्ची मिट्टी थे हम
कुम्भकार हो तुम
ऐसा आकार बनाया मजा आ गया
भूल-भुलैया सी-थी ज्ञान की ये गली
अबूझ पहेली थी मेरे लिए अनकही
आपके साथ ने, ज्ञान के प्रकाश ने
ज्योत ऐसी जलाई मजा आ गया
मेरे प्यारे शिक्षक
आप हैं मार्गदर्शक
ज्ञान की लौ जो लगाई मज़ा आ गया
छोड़कर घर-आँगन थामा आपका दामन
सार्थक बन गया ये हमारा जीवन
आपके विश्वास ने, भर दिया जोश से
ऐसे हमको सँवारा मजा आ गया
मेरे प्यारे शिक्षक
आप हैं मार्गदर्शक
ज्ञान की लौ जो लगाई मज़ा आ गया
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
आज कुसुम का सपना पूरा हुआ था। उसकी बेटी सौम्या तरक्की के नित नए सौपान चढ़ रही थी। जो वो स्वयं न कर पाई वो सब उसने अपनी बेटी को करवाने में अपनी आधी से ज़्यादा उम्र झौंक दी। कुसुम को गर्व था कि उसकी मेहनत जाया नहीं हुई। लेकिन कहीं न कहीं उसकी आँखों में अपनी अधूरी ख्वाहिशों की मायूसी दिखाई पड़ती थी। सौम्या को अपनी माँ की इच्छाओं का भान था और उसने बचपन में ही तय कर लिया था को जब वह लायक बन जाएगी तो माँ के सपनों को पूरा करेगी। साल भर से सौम्या अपनी माँ को नर्सरी टीचर्स ट्रेनिंग और कंप्यूटर आदि की शिक्षा दिला रही थी और जैसे ही उसे लोन मिला उसने एक छोटा सा प्ले-स्कूल खोल दिया और अपनी माँ की ख्वाहिशों को पंख दे दिए। कुसुम जी तो जैसे सांतवे आसमान पर थीं। उम्र के इस पड़ाव पर एक नई उड़ान भरने के लिए तैयार।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक -26-05-2020
चुराकर चंद लम्हे फ़ुर्सत के
चली जाती हूँ मैं फिर वहीं
जहाँ लहलहाती है हरियाली
झूमती-नाचती है डाली-डाली
धानी चूनर ओढ़े धरती खिलखिलाती है
चेहरे पर उसके ओस झिलमिलाती है
बैठ जाती हूँ, आगोश में बच्चों जैसे
छिपी रहती हूँ सीप में मोती ऐसे
पंछी का मधुर स्वर आत्मा झंकृत कर
ले जाता है मुझे बचपन की डगर
डोलती थी मैं पगडंडियों पर आते-जाते
पशु-पक्षियों से थे मेरे कितने नाते
कल्पनाओं की उड़ान में भरती हूँ
चंद लम्हे फ़ुर्सत के मैं ऐसे जीती हूँ।
स्वरचित
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
आयोजन शब्द सीढ़ी
शब्द- नज़र, इश्क़, बेपनाह, वादा, शिद्दत, शक, जुदाई, दर्द
कहाँ गई वो नज़र
जिसमें इश्क़ होता था
देखकर उसमें अपना चेहरा
मुझे रश्क़ होता था
बेपनाह प्यार ने तेरे
जीने की वजह दी
तोड़कर अपना वादा तुम
क्यों मुझे छोड़ चलीं
चाहा इतनी शिद्दत से
अब भुलाएँ भला कैसे
जो शक हो तुम्हें
आजमा लो चाहे जैसे
इस जुदाई को सहना
अब मुमकिन नहीं है
हमदम मेरे दर्द की
कोई दवा नहीं है
स्वरचित
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
मनुष्य के पास सवालों का पुलिंदा है
ढूँढकर उत्तर इन सवालों के वो जिंदा है
भटकता है तलाश में दिन-रात इस कदर
इसका मन-मस्तिष्क तो एक परिंदा है
स्वरचित
दीपाली 'दिशा'
केण लिजी एक शब्द
पर पुर संसार छू
ईजा, यो दुनी में
ईश्वरैक अवतार छू
त्याग और ममतैक
तौ भली मूर्ति छू
घरैक सबन रिश्त
ईजा ले जोड़नी छू
ईजा आँचलैक
कै सानी नी छू
ईजा जैस कोई ले
प्राणी नी छू
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
कहने को एक शब्द
लेकिन पूरा संसार है
माँ तो इस दुनिया में
ईश्वर का अवतार है
त्याग और ममत्व की
यह प्यारी मूर्ति है
घर के सभी रिश्ते
माँ ही जोड़ती है
माँ के आंचल का
कोई सानी नहीं है
माँ के जैसा कोई
भावुक प्राणी नहीं है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
मातृदिवस के लिए
हाथों में लेकर सलाइयाँ
रिश्तों का ताना-बाना गढ़ती है
ये माँ है जो, प्यार के धागों से
दिलों में गर्माहट भरती है
भूल कर दिन-रात का फ़र्क
नित कुछ उधेड़बुन में रहती है
ये माँ है जो अपनी ही धुन में मग्न
इन फंदों से सपने बुनती है
शीत ऋतु की आहट को सुन
नव सृजन वो करती है
ये माँ ही है जो खुद करवटें बदल
हम सबकी खुशियाँ चुनती है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 20-01-20
देशप्रेम ही एक धर्म हो
नहीं हो कोई और निशानी
पूछे कोई कौन हो तुम
मुँह से निकले हूँ हिंदुस्तानी
शिक्षा का ना हो व्यापार
अब ना रहे कोई अज्ञानी
देश-विदेश में बजे डंका
भारत का नहीं कोई सानी
नित-नित समृद्धि बढ़ती रहे
सोए न कभी कोई भूखा
मौसम में ताल बनी रहे
न बाढ़ आए न सूखा
मुफ़्तख़ोरी और रिश्वतखोरी को
बिल्कुल न दिया जाए बढ़ावा
काम से जो भी जी चुराए
उसको न चढ़े अब चढ़ावा
आत्मरक्षा के गुर सीख कर
स्वयं सबला बन जाए नारी
घर और बाहर परचम लहराए
पड़े वो सब पर भारी
युवावर्ग को शक्ति भान हो
यूँही व्यर्थ न इसे गँवाएँ
नवसृजन और अनुसंधानों से
देश का मान वो बढाएँ
मेरे सपनों के भारत में
चहुँदिस शांति और अमन हो
प्यार की गंगा बहती रहे
पूरा विश्व वसुधैव कुटुम्ब हो
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
मजबूर, लाचार, बेचारा
तन-मन से थका-हारा
मेहनतकश है मजदूर
लेकिन किस्मत का मारा
घिसता है रात-दिन
विश्राम नहीं पलछिन
घर से बहुत दूर
रहता अपनों के बिन
समाज की है नींव
आशियानों की उम्मीद
खुद रहता है बेघर
सबका है यह मीत
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू (कर्नाटक)
कहते हैं जो होता है वो अच्छे के लिए होता है
सबके पीछे ईश्वर का कोई संकेत छिपा रहता है
करोना वैश्विक महामारी के इस दौर ने भी हमको
अपने अंतर्मन को टटोलने का एक मौका दिया है
सोचो और करो गहन मंथन कि क्या किया जाए
आने वाले परिवेश में कैसा बदलाव लाया जाए
क्या इसी तरह यूँ ही स्वार्थों में लिप्त रहें हम सब
या फिर जिम्मेदारी उठा अपने कर्तव्यों को निभाया जाए
अपने घोंसलों को और सुरक्षित करें वहीं सहारा मिलेगा
प्रकृति से खिलवाड़ न करें, कहीं नहीं किनारा मिलेगा
रिश्तों को अपने प्यार और विश्वास से खूब सींचे,
जुड़े अपनी जड़ों से, यह गुलशन फिर से आबाद होगा
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू (कर्नाटक)
दिनांक - 31-03-2020
वसंत ऋतु के उत्सव जैसा
सागर में लहरें हों ऐसा
हिमालय पर्वत सा विशाल
पावन है मेरा पहला प्यार
मंदिर में हो जैसे शंखनाद
शिखरों से बहता जल प्रपात
अमृत के जैसा निष्कलुष
अविरल जैसे गंगा की धार
नौ माह गर्भ में रहा सिंचित
ममता के आँचल में सँवरा
जिसको सबसे पहले मैंने जाना
वो माँ ही है, मेरा पहला प्यार
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 29-03-2020
सरपट दौड़ती थी जिंदगी, थम सी गई
रफ़्ता-रफ़्ता पिघलती थी, जम सी गई
शहरों में पसरा सन्नाटा, वीरान हैं सड़कें
घर-आँगनों में रौनकें, दिखती हैं नई
क्या ख़ूब करवटें, वक़्त ने बदली हैं
हम सबकी पेशानी पर, सिलवटें दी हैं
गुज़र जाएगा ये दौर, हिम्मत तो रख
हरहाल में खुश रहने की, आदतें अच्छी हैं
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 27-03-2020
बाहर-बाहर इतना दौड़े हम, रहा नहीं आभास
आज मिला है मौका सोचें, क्या होता घरवास
लूडो, ताश, कैरमबोर्ड बिचारे, धूल खाते कोने में
इनके भी दिन बदले, आता मजा जीने में
कथा, चुटकले, किस्सों के भी, हुए वारे न्यारे
पुस्तकें पुरानी ले अंगड़ाई, अलमारी से अब झाँके
दादा-दादी संग बैठे, दिन कितने बीत गए
नाना-नानी से फोन पर, सब चर्चे छूट गए
आई है रौनक फिर से, घर के गलियारों में
इंद्रधनुषी रंग बिखरे हैं, कमरों की दीवारों पे
खोया था हमने क्या जाना, हुआ आज अहसास
सच कहूँ तो रास आ रहा, मुझे मेरा घरवास
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलूरू (कर्नाटक)
दिनांक - 27- 03-2020
प्रकृति करती थी पोषण
मनुष्य ने किया शोषण
प्राकृतिक संसाधनों का
बहुत किया है दोहन
ये कुदरत है जनाब
रखती है सब हिसाब
बहुत कर ली मनमानी
अब देना होगा जबाब
रूठी है इस बार
कर रही है संहार
हद स्वीकार कर अपनी
करो तुम मान-मनुहार
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
विषय - बचपन की यादें
दिनांक - 26.03.2020
खोली फुर्सत के लम्हों में मैंने, बचपन वाली खिड़की
यादों के झोंकों संग आयी, वो अल्हड़ नटखट लड़की
छन छन पायल झनकाती जो, आँगन में फिरती थी
लटक-मटक कर, अटक-अटक कर, चलती फिर गिरती थी
उसकी मासूम अदाओं से, सबका चेहरा खिलता था
तुतलाती बानी के बल से, कोना-कोना चहकता था
कागज़ की कश्ती लेकर वो, बारिश ढूँढा करती है
बचपन वाली लड़की फिर से, मेरे अंदर जी उठती है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 24.03.2020
आओ हम सब मिलकर, कुछ किस्से गढ़ते हैं
भूली बिसरी यादों के, फिर चर्चे करते हैं
बचपन की गलियों में, चलो दौड़ लगाकर आएँ
घर बैठे-बैठे ही परियों के, सपने बुनते हैं
कुछ बातें हो ऐसी, जिनमें बारिश का चर्चा हो
खयाली पुलाव पकाएँ ऐसा, जिसमें न कोई खर्चा हो
छोटी-छोटी खुशियों का, आओ अंबार लगा लें
उन लम्हों को हम जी लें, जिनको मन तरसा हो
बच्चों के संग मिलकर, कागज़ की नाव बनाना
कुछ उनके किस्से सुनना, कुछ अपनी कहानी सुनाना
ऐसी फ़ुर्सत के पल, कहो फिर कब मिलेंगे
सजाओ महफिल अपनो संग, गाओ खुशियों का तराना
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरु (कर्नाटक)
हे जगजननी सुन, हे करुणामयी
कर कृपा हम पर, ममतामयी
आयी जग पर, भारी विपदा
हे माँ भक्तों के, कष्ट मिटा
तुमने कितनों को ही, तारा है
हर संकट से सबको, उबारा है
माँ फिर से सबका, उद्धार करो
इस भवसागर से बेड़ा, पार करो
हम तेरे दर पर, आए हैं
न खाली लौटकर, अब जाएँगे
यह शीश हटेगा, तब पग से
जब तेरा आशीष, हम पाएँगे
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दोस्ती होती है बड़ी कीमती,
जो बाँधे दो दिलों की डोर।
वक़्त और दूरियाँ भी न तोड़ सके,
यह होती नहीं कभी कमज़ोर।
रखे हमारा हाथों में हाथ,
छूटने न दे दोस्तों का साथ।
दोस्ती वो नियामत होती है,
जो उम्र भर हमारे संग रहती है।
स्वरचित
स्निग्धा तिवारी (बिटिया)
कोमल मन और कोमल तन
भावनाओं का पारावार हूँ मैं।
लक्ष्मी भी हूँ, दुर्गा भी हूँ
फूल भी मैं, तलवार भी मैं
निर्मल गंगा बन बहती हूँ
धूप में ठंडी, बयार हूँ मैं
घर के आँगन की तुलसी हूँ
कई रिश्तों की पतवार हूँ मैं
क्षमताओं का अपनी भान मुझे
नारी हूँ, शक्ति अवतार हूँ मैं
नवजीवन सृजन मैं करती हूँ
सृष्टि भी रचूँ, संहार भी मैं
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू कर्नाटक
(1)
शीर्षक - रखवाले
जब तलक हैं देश के रखवाले
कौन है जो बुरी नज़र डाले
हुई है आज़माइशें भी कई बार
हरदम हुए दुश्मनों के मुँह काले
(2)
शीर्षक - दीपदान
देशहित में, मैं एक छोटा सा किरदार हूँ
अपना कर्तव्य निभाने के लिए, हरदम तैयार हूँ
देशप्रेम की लौ तो कब से जल रही है
अब दीपदान के लिए भी मैं बेकरार हूँ
(3)
*शहादत*
जो हर दिन हर पल मौत के साए में रहते हैं
ज़िंदगी के कितने सपने उन आँखों में पलते हैं
जानते हैं कि ये आँधी कभी भी उड़ा ले जाएगी
फिर भी वो वतन पर मिटने का हौंसला रखते हैं
©
दीपाली पंत तिवारी।
अपनी इस ज़िन्दगी को अख़बार न समझो
रिश्तों का ताना-बाना है समाचार न समझो
बन जाए न तमाशा सरेआम ज़िंदगी का
ये तो जज़्बात हैं, चर्चा ए आम न समझो
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 29-01-20
विधा - मुक्तक
गद्य-पद्य का अनोखा रूप
कल्पनाओं का अदभुत स्वरूप
साहित्य अभिव्यक्ति का सागर है
बारिश में भी जैसे खिली धूप
उथला नहीं यह गहरा है
जो डूबा है वह तैरा है
साहित्य सम्भावनाओं का स्वर
यह ज्ञान का नवीन सवेरा है
कृतियों का होता गहन अध्ययन
पक्ष-विपक्ष विचारों का मंथन
समालोचना साहित्य की कसौटी है
जो बढ़ाती है उत्तम सृजन
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू ( कर्नाटक)
(1)
शीर्षक - नज़रिया
ज़िंदगी को जीने का यही नज़रिया होना चाहिए।
जिसको जो कहना है कहे, मस्त रहना चाहिए।।
(2)
शीर्षक - बेटियाँ
पायल-सी खनकती,कलियों-सी महकती
धूप-सी छिटकती,रहती हैं बेटियाँ
चंदा की चाँदनी, वीणा की रागिनी
गंगा सी पावनी, कहलाती हैं बेटियाँ
(3)
शीर्षक - मन
मन तो बेलगाम घोड़े-सा दौड़े है
सरपट क्षितिज की ओर
अनभिज्ञ और अनजान-सा दिशाहीन
दिखता नहीं कोई छोर
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 16-01-2020
विधा - काव्य (मुक्तक)
आज फिर खुला है, यादों का सन्दूक
निकल आए हैं, ना जाने कितने किस्से
कुछ दिखा रहे हैं, बचपन की झाँकियाँ
कुछ ने छेड़े हैं, यौवन के हिस्से
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
मुक्तक
बाँध लूँगा मैं सूरज को, शाम नहीं ढलने दूँगा
ठान ली रब से मैंने, उसकी ना चलने दूँगा
तू हौंसला रख मेरी बिटिया, ढाल हैं बाबा तेरी
खड़ा हूँ वक्त को थामकर, रेत-सा नहीं फिसलने दूँगा
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
(1)
शीर्षक- महत्व
महेश सुबह से घर के कामों में सर खपा रहा था लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं कर पाया। आज वो समझा कि स्त्रियाँ सारा दिन घर पर करती क्या हैं?
(2)
शीर्षक- गूँज
सुनैना उठी और पहली बार जवाब में पति नरेश के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया जो उसकी कल्पना से परे था। इस थप्पड़ की गूँज, अब वो कभी नहीं भूल पाएगा।
(3)
शीर्षक- किलकारियाँ
निहाल ने खुशी के मारे मनीषा को गोद में उठा लिया। वर्षों बाद उनके आँगन में किलकारियाँ गूँजने वाली थीं। आज तो बस उन दोनों के कानों को, आने वाली सन्तान की किलकारियाँ ही सुनाई दे रही थीं।
(4)
शीर्षक - मुस्कान
वो बच्चा अधीरता से कुछ खोज रहा था और तभी उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान तैर गयी। सूखी रोटी के लिए उसकी आँखों की चमक देखने लायक थी।
(5)
*शीर्षक - उतरन*
उत्सव में रमिया को अपनी दी हुई उतरन(साड़ी) पहन इठलाते देखकर रेखा की आँखें भर आईं।
(6)
शीर्षक - नववर्ष
मुस्कराता चेहरा, आँखों में आशाओं की चमक और बातें, आसमान छूने की। 'रोशनी' जिसका हर दिन, हर पल एक पर्व है। लोग कहते हैं कि उसकी ज़िंदगी के थोड़े ही दिन बचे हैं। हो सकता है कि यह रोशनी के जीवन का आखिरी नववर्ष हो।लेकिन ज़िंदगी का क़द उसकी लंबाई से नहीं उसे पूरी तरह जीने से बड़ा होता है।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 26-11-2019
मस्त, अल्हड़, बेबाक बचपन
थोड़ा सा बदमाश बचपन
तोड़कर इस जग के बंधन
उड़ने को बेताब बचपन
सीमाओं से मुक्त बचपन
ऊँची कुँलाचे भरता बचपन
सूर्य-सा नभ में चमकता
क्षितिज का आभास बचपन
इंद्रधनुष के जैसा बचपन
सतरंगी एक स्वप्न बचपन
उम्र की ढलती सांझ में
जीने की उम्मीद बचपन
स्वरचित
दीपाली 'दिशा'
बैंगलौर
दिनांक - 22.11.2019
(1)
सोने-सा खरा है दर्पण
ध्रुव तारे-सा अड़ा है दर्पण
नकाब लगा लो कितने ही
फिर भी सच से भरा है दर्पण
(2)
दिख जाए अक्स मेरा तेरी आँखों में
तो वही दर्पण है मेरा
छलक जाए दिल का पैमाना तेरे चेहरे पर
वही दर्पण है मेरा
स्वरचित
दीपाली 'दिशा'
22-11-2019
छोटे से दिल में हैं,आशाएँ बड़ी-बड़ी
दादी के चश्मे और दादा जी की छड़ी
माँ की लोरियाँ भी, पिताजी की झिड़की भी
देखो बचपन के सन्दूक में, कितनी यादें पड़ीं।
दीपाली 'दिशा'
दिनांक - 22--11-2019
उम्र, बचपन का कोई, पैमाना थोड़े ही है
यह बचपन केवल एक, जमाना थोड़े ही है
जब तक सीने में, चहकता रहेगा यह बचपन
कागज़ की नाव का ज़माना, पुराना थोड़े ही है
दीपाली 'दिशा
दिनांक - 22-12-2019
मुरली की तान में
गीता और कुरान में
यीशु की बाइबिल में
गुरु-ग्रंथ के बखान में
मैं ही तो हूँ
मैं बचपन हूँ
गंगा के जल में
जीवन के पल में
प्रश्नों के हल में
कल, आज, कल में
मैं ही तो हूँ
मैं बचपन हूँ
दीपाली 'दिशा'
लघु कथा
दिनांक - 19.11-2019
शर्मा जी अक्सर सोसायटी के लोगों को सही गलत का पाठ पढ़ाते रहते थे। कोई मौका नहीं छोड़ते थे। सभ्यता और संस्कार तो जैसे उनकी बपौती थे। कल जैसे ही मैंने बॉलकनी से नीचे झाँका तो क्या देखती हूँ कि शर्मा जी पड़ोस के खाली प्लॉट में अपने घर का कूड़ा फेंक रहे थे। मेरा तो मुँह खुला का खुला ही रह गया। सच कहा है 'नाम बड़े और दर्शन छोटे'।
दीपाली पन्त तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 20-03-2019
मैं कर रही हूँ प्रेम की बात
जो है एक अनमोल भाव
सबको गले लगाना है
दूरियों को मिटाना है
मैं कर रही हूँ प्रेम की बात
है कण कण में इसका वास
सबको अहसास दिलाना है
मन से बैर मिटाना है
मैं कर रही हूँ प्रेम की बात
है हर रिश्ते की बुनियाद
मिलजुलकर साथ निभाना है
इसको नहीं मिटाना है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 17-07-2019
शर्मा जी कब से टकटकी लगाए हाथ में लिए अपनी पुरानी घड़ी को देख रहे थे। न जाने कितनी ही यादें जुड़ी थीं इस बेकार सी दिखने वाली घड़ी से। आज भी रह-रहकर दादाजी का दमकता चेहरा और घड़ी देते हुए 'समय का हमेशा ध्यान रखने' की उनकी सीख शर्मा जी को याद आ जाती है। यही सब उन्होंने अपने बच्चों को भी दिया था। लेकिन आज वह अकेले, इस पुश्तैनी घर में एक पालतू तोते, इस घड़ी और जोड़-तोड़ करके ख़रीदी गाड़ी के साथ दिन गुज़ार रहे हैं।
शर्मा जी के एक बेटा और एक बेटी है। दोनों विवाहित हैं और अब अपनी-अपनी जिंदगियों में व्यस्त हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि उन दोनों को अपने पिता से लगाव नहीं है या वे उनका ध्यान नहीं रखते। शर्मा जी का ही समय थम गया है। जब से उन्होंने अपनी पत्नी को खोया है तबसे वे उन्हीं पलों में सिमट गए हैं। इस घड़ी, घर , गाड़ी आदि से जुड़ी पत्नी की यादों को वो कभी भुला नहीं पाए। इसीलिए उन्होंने इस घर को न छोड़ कर जाने का फ़ैसला किया।
शादी के बाद उन्होंने अपनी पत्नी सुरेखा को बताया कि यह घड़ी उनके दादा जी की निशानी है तो वो उसे इतना सहेजकर रखतीं जैसे भगवान की मूरत हो।
घर के कोने-कोने में सुरेखा बसी थी। शर्मा जी का मानना था कि सुरेखा यहीं है उनके आस-पास। वो कहीं गयी ही नहीं। शर्मा जी जब-तब सुरेखा सुरेखा नाम लेकर बड़बड़ाते रहते।
दो दिन बाद सुरेखा जी की बरसी थी। दोनों बच्चे परिवार के साथ आने वाले थे। इस बार बच्चों ने ज़िद पकड़ ली थी कि शर्मा जी को उनके साथ चलना ही होगा। वे अब उन्हें यहाँ अकेला नहीं छोड़ेंगे।
शर्मा जी घर की एक-एक चीज़ और उससे जुड़ी यादों को अपने अंदर बसा लेना चाहते थे। वे बार-बार सुरेखा पुकारते और कहते सुनो तैयार हो जाओ, अब जाने का समय हो गया है।
इसी बीच शर्मा जी के बच्चे घर आते हैं। उनके नाती-पोते दूर से नानाजी-दादाजी आवाज़ लगाते हुए दौड़ते हुए शर्मा जी के पास पहुँचते हैं। शर्मा जी वहीं आराम कुर्सी पर हाथ में घड़ी और अपनी पत्नी की तस्वीर लिए अचेत पड़े हैं। वहीं उनका पालतू तोता "चलो सुरेखा, जाने का समय हो गया है" की रट लगा रहा था। आज शर्मा जी, जीवन के अंतिम सफ़र पर निकल पड़े थे।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 11-06-2019
वीणा आज फ़िर रसोई में अकेले खप रही थी। लंबे अंतराल के बाद उसने दुबारा स्कूल की नौकरी शुरू की थी। उसे उम्मीद थी कि अब तो उसकी बड़ी बेटी घर के कामकाज में उसकी सहायता कर दिया करेगी। दो नों मिलकर सब सँभाल लेंगे। लेकिन वीणा की उम्मीदों के सारे किले धराशायी हो गए। उसकी बेटी रिया के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। उसे अहसास ही नहीं होता था कि उसकी माँ घर की सारी जिम्मेदारियाँ अकेले ही उठा रही है। हालाँकि वीणा के पति उसकी सहायता करते थे लेकिन सुबह के समय स्कूल जाते समय छोटे-बड़े कई काम होते थे जिसमें मदद चाहिए होती थी। वीणा और उसकी बेटी एक ही स्कूल में थे। उसके पति भी सुबह जल्दी ऑफिस जाते थे। यानी कि पूरा परिवार एक साथ ही जाता था। सबका ब्रेकफास्ट, लंच बनाना और पैक करना आदि काम वीणा को अकेले ही करने पड़ते थे। जिस दिन वीणा की आँख ज़रा देर से खुलती तो उसकी हालत पस्त हो जाती। पर करती तो क्या करती। कब तक ऐसे ही खाली घर पर बैठे रहती। इन सबका असर धीरे-धीरे वीणा की सेहत पर पड़ रहा था। ऊपर से तो वो बहुत ऊर्जावान दिखती लेकिन अंदर से बहुत कमज़ोर होती जा रही थी।
वीणा ने कई बार अपनी बेटी को प्यार से फटकार से समझाने की कोशिश की लेकिन कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ा। और फिर वही हुआ जिसका डर था। वीणा बीमार पड़ गई । डॉक्टर ने उसे आराम की सख्त हिदायत दी। अब तो सारी की सारी जिम्मेदारी रिया के ऊपर आ गयी। घर में कोई और तो था नहीं मदद के लिए। रिया का हाल वही था कि 'मरता क्या न करता'।
अब जब रिया को सारा काम अकेले करना पड़ा तब उसे अहसास हुआ कि उसकी माँ पर क्या बीत रही थी। उसके सामने वो पुराने दिन चलचित्र की भाँति घूमने लगे। कैसे बार-बार उसकी माँ उससे सहायता की उम्मीद करती थी, पर उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया। रिया की आँखें खुल गयीं थीं। उसे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो गया था। रिया अब सभी काम बहुत तत्परता से करने लगी थी। उसने अपनी माँ की बहुत सेवा की जिससे वह जल्दी ही स्वस्थ हो गयी। रिया को जिम्मेदार बनता देख वीणा की आँखें भर आईं। उसने रिया को गले लगा कर कहा मुझे अपनी जिम्मेदार बेटी पर गर्व है। रिया की आँखों में भी खुशी के आँसू झिलमिला उठे।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 10.07-2019
सफलता के हमें, कई हिस्सेदार मिले
असफलता के हम, ख़ुद ज़िम्मेदार हुए
ये अजीब चलन है, दुनिया का
मतलब ना रहा, तो बेकार हुए
फ़ुर्सत के पल, अब मिलते नहीं
अपने आप से बाहर, निकलते नहीं
गैरों की बात, नहीं है ये
अपनों से भी हम, बेज़ार हुए
घर कहाँ रहे वो आँगन वाले
छत से छत जोड़, बतियाने वाले
जो रमते थे कभी मोहल्ले में
ए 'दिशा' अकेलेपन के तलबगार हुए
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 10-07-2019
लाल-पीली, हरी-नीली
न जाने कितनी रंगीली
हाथों में जो खनकतीं
खुशी चेहरे पर दमकती
लाख,काँच, धातु-प्लास्टिक
नगों-मोतियों से सुसज्जित
विभिन्न आकार, बेजोड़ नमूने
कँवारियों-सुहागिनों के जोड़े
हर रूप-रंग में मोहतीं
ये चूड़ियाँ बहुत शोभतीं
छेड़तीं हैं अनोखी तान
स्त्रियों का बढ़ाए मान
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 04-08-2019
बचपन की गलियों से
जवानी की दहलीज़ तक
बुढ़ापे के सहारे में
अकेलेपन की खीज़ तक
ये दोस्ती बहुत काम आई
जैसे साथ रहे हरदम परछाई
बचपन की शैतानियों में
यौवन की नादानियों में
वृद्धावस्था की ज़दों में
बेख़याली के पलों में
सुन दोस्त तेरी ही याद आई
जैसे साथ रहे हरदम परछाई
है शुक्रिया दिल से
ए दोस्त तुमसे मिलके
मुझको हमेशा ऐसा लगा
जैसे मिले सुदामा-कृष्ण से
तेरी मित्रता सदा ही भायी
जैसे साथ रहे हरदम परछाई
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 06-08-2019
प्रभु कृपा से शुभ दिन है आया
तारीख़ मुरादों वाली लाया
370 का मिटा कलंक
हुआ भारत पुनः अखण्ड
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख
भारत माँ के बेटे थे ख़ास
माँ के आँचल से दूर हुए
बरबादी को मज़बूर हुए
छल-कपट का किला हुआ ध्वस्त
आतंकी के हौंसले अब हुए पस्त
रात घनेरी बीत गई
आशा की किरणें फैल रही
जो फूल चमन से थे जुदा
वर्षों का बिछड़े फिर आन मिले
माली की मेहनत जब रंग लाई
रौनक चमन की तब लौट आई
अमन की फ़सल लह-लहाएगी
कश्मीर की वादी फिर मुस्काएगी
बचपन देखेगा नित नवीन सपने
घर लौट आएँगे सबके अपने
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 07-08-2019
व्यक्तित्व प्रखर
वक्ता मुखर
सबला नारी
सक्षम-समर्थ
सरस्वती भी
और दुर्गा रूप
भारतवर्ष की
सुषमा प्यारी
राजनीति के
अखाड़े में
अकेली ही
सौ पर भारी
इस दुनिया से
वो चली गईं
लौकिक नहीं
अलौकिक हुईं
व्याख्यानों में
गुण गानों में
अमर रहेगी
उनकी आभा
ऐसी विलक्षण
प्रतिभा से
इतिहास झिलमिलाता
है सदा
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
श्रावण मास है बड़ा निराला
मनवांछित फल दे डमरूवाला
बम-बम भोले का जयकारा
खूब लगाता काँवड़ वाला
शिव मंदिर में लगता ताँता
भक्त भोले को शीश नवाता
पंचामृत से करके अभिषेक
बेलपत्र और पुष्प चढ़ाता
भोलेनाथ हैं बहुत ही भोले
नमः शिवाय मन्त्र जो बोले
थोड़े से ही खुश हो जाते
जीवन में खुशियाँ बरसाते
सत्य ही शिव कहलाता
शिव ही सुंदर बन जाता
सच्चे मन से जो ध्यान लगाता
वो ही शिव का भक्त कहाता
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 15-08-2019
ये तिरंगा नहीं है,
भारत की आन है
ये तो सरजमीं
हिन्दोस्तां की पहचान है
रंग केसरी वीरता की निशानी है
सफ़ेद रंग शांति की वाणी है
हरे रंग में समृद्धता और हरियाली है
नीले रंग का अशोक चक्र गतिशाली है
हाथ में थाम इसे,
बच्चा-बच्चा बोला है
वतन पर मर-मिटने वालों का
यह बसंती चोला है
रोम-रोम में जगाता है स्वाभिमान
लहराकर कहता, मैं ही हूँ हिंदुस्तान
अनेकता में भी एकता का प्रतीक
यह तिरंगा है भारतवर्ष का मान
दीपाली पन्त तिवारी 'दिशा'
आदरणीय अरुण जेटली जी को समर्पित
सूर्य-सा व्यक्तित्व तुम्हारा
राजनीति की आकाशगंगा
चमक रहा है आज ऐसे
विश्व में ज्यों लहराए तिरंगा
वटवृक्ष-से तुम बने रहे
कितने पले तुम्हारी छाया तले
सपनों को उनके उड़ान दी
तेरी अरुणिमा अब उनमें जले
जो अस्त हुए हो आज भी
तो छोड़ अपने निशां गए
बस देह ही चली गई
है अरुण की चमक यहीं
स्वरचित
दीपाली 'दिशा'
बैंगलुरू
अस्त हुआ जीवन का अरुण
कर्मों का सूर्य चमकता है
अरुणिमा अभी भी है बिखरी
मूल्यों का रूप दमकता है
राजनीति का वो उजियारा दीप
बी जे पी का कुशल प्रवक्ता है
कब, कहाँ किए उपकार अनेक
जनता-प्रेम में झलकता है
तन-समर्पित, जीवन भी समर्पित
ऐसा व्यक्तित्व अमर है होता
देशजीत में जो काम करे
वो अरुण नहीं अस्त होता
स्वरचित
दीपाली 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
बैंगलूरु
काली घटाएँ सूरज को निगलने के लिए बड़ी चली आ रही थीं। तूफानी हवाएँ वृक्षों को झकझोर रही थीं। मौसम में बदलाव देखकर रेखा अतीत की स्मृतियों में खो गई और उसे वर्षों पहले बीती घटना याद आ गई। उस दिन भी ऐसा ही मौसम था जब वह आई ए एस की परीक्षा देने जा रही थी। घर से निकलते समय सब कुछ ठीक था लेकिन आधे रास्ते में पहुँचते ही मौसम ने ऐसी करवट ली कि दिन में रात जैसा माहौल हो गया। रेखा की दिल की धड़कने बढ़ती ही जा रही थी। उसको अपने सपनों के टूटने की आहट सुनाई दे रही थी। घर वालों के कितने विरोध के बाद भी उसने आई ए एस की परीक्षा की तैयारी की थी। और आज वो दिन आया था। लेकिन ये मौसम..…क्या करूँ? किससे सहायता लूँ? रेखा इसी उधेड़बुन में लगी थी कि तभी एक युवक उसके पास आया और बोला क्या आप भी आई ए एस की परीक्षा देने जा रही हैं? पहले तो वह घबरा गई फिर हिम्मत जुटाकर बोली जी हाँ। लेकिन आप....आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं? तब उस युवक ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया कि उसका नाम रवि है और वह भी आई ए एस की परीक्षा के लिए जा रहा है। उसके साथ कुछ और भी लोग हैं उन सबने मिलकर प्राइवेट टैक्सी वाले से परीक्षा स्थल पर छोड़ने की प्रार्थना की है। टैक्सी वाला राजी हो गया है और एक सीट खाली है। क्या तुम हमारे साथ आओगी? रवि ने पूछा। रेखा को तो ऐसा लगा जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। उसने रवि को बहुत-बहुत धन्यवाद कहा और परीक्षा देने चली गई। रेखा आज भी उस अंजान फरिश्ते के अहसान को नहीं भूली है। उसी फ़रिश्ते के कारण वह एक सफ़ल आई ए एस ऑफिसर बन पाई है। आज विद्यार्थियों की सहायता करना उसके जीवन का ध्येय बन गया है।
दीपाली 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
दिल्ली पब्लिक स्कूल
बैंगलुरू
दिनांक - 09-08-2019
उमड़-घुमड़ कर बदरा छाए
सावन ऋतु का संदेशा लाए
गर्मी का मौसम अब बीता
बरस-बरस यह सबको बताए
भीगा तन है भीगा मन है
महका-महका वन-उपवन है
तपता सूरज शांत हुआ यूं
जैसे शीतल जल-चंदन है
कागज़ की नावों का मौसम
याद दिला दे सबका बचपन
झूम-झूम सब नाचें गाएँ
तोड़ के सारे उम्र के बंधन
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
यह गाथा है, उन वीरों की
कारगिल के, अमर शहीदों की
जो प्राण न्योछावर कर आए
दुश्मन भी उनसे थर-थर्राए
है कथा सन् निन्यानबे की
महीना था मई और जुलाई
एक चरवाहे ने जब देखा
शत्रु की सेना घर आई
कर पार नियंत्रण रेखा को
भारत में सेंध लगाने आए
कारगिल की ऊँची चोटी पर
बैठ गए वो कब्ज़ा जमाए
हिन्द की सेना हुई सतर्क
जल्दी पता किए सारे ठिकाने
निकल पड़ी लेकर विजय-रथ
पहुँची दुश्मन को सबक सिखाने
मिग-सत्ताईस और मिग-उनतीस
तोप, रॉकेट, मिसाइल और मोर्टार
दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए
करे उनपे ऐसे वार-प्रहार
मिलकर हिन्द की सेना ने
जब ऑपरेशन विजय चलाया
मातृभूमि के सभी शत्रुओं को
फिर सीमा के पार भगाया
है नमन भारतीय वीरों को
इस जन्मभूमि के हीरों को
भारत का मान बढ़ाया
ऊँचे आसमान में अपना तिरंगा लहराया
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
ईद उल जुहा
अर्थात कुर्बानी की ईद,
आती है, जब रमजान के
सत्तर दिन जाएँ बीत ।
जुड़ी है इससे हजरत
इब्राहिम की कहानी
दी थी अल्लाह के हुक्म से
अपने बेटे की कुर्बानी
खुश हुए अल्लाह उनसे,
परीक्षा में अव्वल वो आए
और फिर अल्लाह ने दिए
उनके बेटे के प्राण लौटाए
उस दिन से ही ईद उल जुहा
का पर्व ख़ूब मनाया जाता
हज़रत की कुर्बानी को
याद कर शीश नवाया जाता
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
यादों के पिटारे में, ख़ूबसूरत लम्हे उड़ेलकर
जिंदगी के कैनवास पर इंद्रधनुषी रंग बिखेरकर
देखो दामन छुड़ाकर, यह साल जा रहा है
उम्मीदों की टोकरी, सपनों की पोटली भरकर
आने वाले कल की सुंदर तस्वीरें उकेरकर
नववर्ष नई भोर-सा मुसकाता आ रहा है
दीपाली 'दिशा'
बलिष्ठ शरीर और कुशाग्र बुद्धि
तन-मन में भरी गज़ब फुर्ती
हम युवा हैं, दम-खम रखते हैं
अंगारों पर भी चल सकते हैं
कोई अर्जुन के जैसा लक्ष्यभेदी
कोई कृष्ण जिसने गीता कह दी
हम युवा हैं, दम-खम रखते हैं
सीने पर गोली चखते हैं
धरती-अम्बर हो या पाताल
सेहरा-सागर या पर्वत विशाल
हम युवा हैं, दम-खम रखते हैं
नामुमकिन को मुमकिन करते हैं
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
कहते हैं दुनिया गोल है; लेकिन भरोसा तभी होता है जब हमारे साथ ऐसा कोई वाकया हो जाए। पिछली बार फुटबॉल टूर्नामेंट के लिए जब ऑस्ट्रेलिया जाना हुआ तब मैदान पर भारतीय मूल की एक फैन से आमना -सामना हुआ। ये मुलाकात एक मीठी याद बनकर रह गयी। उसकी प्यारी सूरत और अल्हड़ अंदाज़ मैं आज तक नहीं भूल पाया। कभी- कभी ऐसा भी लगता था कि काश वो यहाँ भारत में ही होती तो शायद मुलाकात का सिलसिला चल पड़ता। प्रीत की ये चिंगारी कहीं मेरे दिल में सुलग रही थी। मैं जब किसी भी टूर्नामेंट में जाता तो कहीं न कहीं मेरी आँखें उसे ही खोजती। अपनी मूर्खता पर हँसी भी आती लेकिन फिर भी कहीं आस रहती क्या पता एक दिन ये सपना सच हो जाए। आज चार साल बाद जब स्टेडियम में वो मुझसे टकराई तो मुझे विश्वास हो गया कि दुनिया गोल है। साथ ही साथ अपने प्यार से मिलन की उम्मीद भी बलवती हो गई।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 15-01-2020
विधा- कविता
क्या कोई ऐसी डगर है
जो पाट दे दो दिलों की खाई
क्या कोई ऐसी डगर है
जो मिटा दे विचारों के फ़ासले
क्या कोई ऐसी डगर है
जो अंधेरों को जोड़ दे रोशनी से
क्या कोई ऐसी डगर है
जो मरने ना दे किसी को भुखमरी से
क्या कोई ऐसी डगर है
जो इंसान को मिला दे इंसानियत से
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
विधा - कविता
है धन्य-धन्य भारतभूमि
यहाँ वीर सुभाष ने जन्म लिया
है कोटि नमन उस माता को
जिसने एक ऐसा लाल दिया
उठा दिए थे बचपन से ही
सुभाष ने कदम वीरता वाले
युवा क्रांतिकारी खुदीराम के लिए
साथी छात्रों से उपवास करा डाले
सुनकर भाषण गांधी जी का
विदेशी वस्त्रों का त्याग किया
बाल्यकाल में ही होकर प्रभावित
खादी और स्वदेशी अपना लिया
होकर युवा वीर सुभाष ने
नित नए-नए आयाम गढ़े
देश की आज़ादी की खातिर
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हुए खड़े
केवल अपने ही दम पर
आज़ाद हिंद फ़ौज खड़ी करी
पुरुषों के साथ ही साथ
महिलाओं की भी वाहिनी बनी
आज़ादी देने का वादा कर
जनता से खून माँगा उधार
माताओं-बहनों ने आगे बढ़कर
अपने गहने भी दे दिए उतार
देश का ऐसा प्यारा नेता
ना जाने कहाँ खो गया
जाते-जाते इस दुनिया से
यादों के बीज बो गया
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
बंगलुरू
दिनांक - 17-01-2020
दिन - शुक्रवार
विधा - कविता
कभी- कभी तनहाइयाँ भी
बेहतरीन दोस्त बन जाती हैं
अनजानों की भीड़ में
कुछ अपनापन दे जाती हैं
जब बाहर का शोर
दिल बेजार करने लगता है
तब तन्हाई का आलम
दर्द पर मरहम लगता है
मदहोश दिल की धड़कन
हलचल पैदा कर देती है
कभी-कभी तन्हाई भी
हमें खुद से मिला देती है
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 18-01-20 शनिवार
विधा - कविता
पंख लगाकर गुजर जाते हैं लम्हे
आ जाता है पल जुदाई वाला
हँसी-ठिठोली जहाँ हरदम होती थी
छलकने लगा अब नयनों का प्याला
अपनों से बिछड़ने का एहसास ही
सबका दिल भारी करने लगता है
विदाई की घड़ी ज्यों आए करीब
एक तूफ़ान का मंजर दिखता है
भावनाओं के इस मंथन से छंटकर
कुछ प्यारी स्मृतियाँ निकलती हैं
जो आने वाले मिलन के लिए
विदाई को सुखमय कर देती हैं
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी
बंगलुरु
विधा - लघुकथा
दिनांक - 21-01-20
बालकनी में रोज एक छोटी सी पर्ची पड़ी मिलती जिसमें लिखा रहता 'दीदी मुझे बचा लो' बाकी कुछ भी नहीं। आज यह पंद्रहवाँ पैगाम था जो इस पर्ची के द्वारा मुझे मिला था।
शुरू में तो मुझे लगा शायद कोई मज़ाक कर रहा है लेकिन अब लगने लगा है कि ज़रूर कोई मुसीबत में है। आज मैंने अपने चारों तरफ पैनी निगाहों से मुआयना किया ताकि कुछ तो सुराग मिल जाए। तभी मेरी नज़र सामने वाले फ्लेट की खिड़की पर पड़ी। ऐसा लगा जैसे कोई हाथ हिला रहा था। दुबारा देखा तो कोई भी नहीं था।
रात इसी उधेड़बुन में निकल गई कि आखिर कौन हो सकता है जो हाथ हिला रहा था या फिर मेरा वहम था। अगले दिन सुबह उठते ही मैं सामने वाले फ्लैट में जाने के लिए निकली। गार्ड से पूछा तो उसने बताया कि शर्मा जी का परिवार रहता है लेकिन आजकल वो विदेश गए हैं। मैंने पूछा क्या कोई चाबी दे गए हैं क्या किसी को? गार्ड ने कहा पता नहीं। आप सोसायटी के अध्यक्ष जी से पूछ लें।
मैं घर आ गयी लेकिन मन बाद बेचैन था। मेरी नज़र बार-बार वर्मा जी के फ्लैट की खिड़की पर ही जा रही थी। मैं भगवान से मना रही थी कि बस एक बार मुझे कुछ इशारा मिल जाए तो मैं कुसी की सहायता कर पाऊँगी। अपनी बालकनी में चक्कर लगाते-लगाते फिर मुझे वही हाथ और छाया नज़र आई। मैंने जल्दी से अध्यक्ष जी के घर दौड़ लगाई और उनसे शर्मा जी के घर की चाबी के लिए पूछा। उन्होंने कहा उनके पास कोई चाबी नहीं है। मैंने उन्हें सारी जानकारी दी और चलकर दरवाज़ा तोड़कर खोलने की बात कही। तब अध्यक्ष जी ने कहा कि बिना पुलिस की सहायता से हम यह नहीं कर सकते।
तब हम दोनों ने अन्य सोसायटी के सदस्यों को बुलाया तथा पुलिस की सहायता से दरवाजे को लॉक तोड़कर खुलवाया। अंदर जाकर देखा तो पता चला शर्मा जी का परिवार अपनी बहू को घर में बंद करके मरने के लिए छोड़ गए थे। उनकी बहू प्राची ने बताया कि वो उनके लिए और दहेज नहीं ला सकी इसलिए वो उसे यहीं भूखा-प्यासा बन्द करके चले गए ताकि वो अंदर ही भूख-प्यास से मर जाए।
प्राची ने बताया कि मेरे फ्लैट की बालकनी उनकी खिड़की के सामने पड़ती है तो उसने सोचा कि पर्ची के द्वारा पैगाम भेजूँगी तो कभी न कभी तो शायद कोई मेरी मदद को आ जाएगा। प्राची की जान तो बच गयी लेकिन समाज के एक सभ्य से दिखने वाले परिवार का घिनौना सच उजागर हो गया। पुलिस के अनुसार वो लोग जल्द ही गिरफ्तार कर लिए जाएँगे और उन्हें कड़ी सज़ा मिलेगी।
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी ' दिशा'
दिनांक - 21-01-20
विधा - कविता
जान है वतन,आन है वतन
वतन पर मिटने वालों का
स्वाभिमान है वतन
जीने की पुख़्ता वजह
बसता है सबके हृदय
हो गए गर जुदा वतन से
जीवन रेगिस्तान है
जाना पड़े कहीं भी मुझे
लौटकर यहीं आऊँगा
जब भी पुकारेगा वतन
मैं कहीं न रुक पाऊँगा
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
विधा - कविता
दिनांक - 20-01-20
है जीवन अपना तभी सुखारत
जो काम किसी के आ जाओगे
खाली हाथ आए इस जग में
खाली हाथ ही जग से जाओगे
आने-जाने के बीच में हमको
जो भी समय उधार मिला
सत्कर्मों में उसको हम लगाएँ
इससे ही पुण्यों का फूल खिला
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी ' दिशा'
दिनांक - 19-01-20 रविवार
विधा - कविता
पायल-सी खनकती
कलियों-सी महकती
धूप-सी छिटकती
रहती हैं बेटियाँ
आँगन की चिड़िया
जादू की पुड़िया
पापा की गुड़िया
होती हैं बेटियाँ
चंदा की चाँदनी
वीणा की रागिनी
गंगा सी पावनी
कहलाती हैं बेटियाँ
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
दिनांक - 18-01-2020 शनिवार
विधा - कविता मुक्तक
तेरी मेरी यह प्रीत पुरानी
जैसे बहते दरिया का पानी
कितने ही मौसम बीत गए
आज भी एकदम नई कहानी
किस्मत का चमका है तारा
बना रहे यह रिश्ता प्यारा
खुली आँखों से देखूँ सपने
जन्म-जन्म का साथ हमारा
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरु
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