मजबूर, लाचार, बेचारा
तन-मन से थका-हारा
मेहनतकश है मजदूर
लेकिन किस्मत का मारा
घिसता है रात-दिन
विश्राम नहीं पलछिन
घर से बहुत दूर
रहता अपनों के बिन
समाज की है नींव
आशियानों की उम्मीद
खुद रहता है बेघर
सबका है यह मीत
स्वरचित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरू (कर्नाटक)
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