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बुधवार, 23 दिसंबर 2020

खुशनुमा ईद


अली के पैर आज ज़मीन पर नहीं थे। हो भी क्यों भई आज उसका पसंदीदा त्योहार 'ईद' जो आया था। ईद आने के  एक सप्ताह पहले से ही वो कल्पनाओं की उड़ाने भरने लगता। इस बार की ईद तो और भी ख़ास थी क्योंकि उसके मामूजान जो इस ईद पर आने वाले थे। अली तो मामूजान से मिलने वाले उपहारों के बारे में सोच-सोचकर फूला नहीं समा रहा था। फिर मामूजान के साथ उनके बच्चे ज़ेबा और फरमान भी तो आएँगे। कितना मजा आएगा। 

ईद का दिन भी पास आ गया। अगले दिन ईद है लेकिन अली की निगाहें तो बस दरवाजे पर टिकी थीं। वो बड़ी बेचैनी से मामूजान और उनके परिवार का इंतजार कर रहा था।  गाड़ी की आवाज़ सुनते ही वो चिल्लाता हुआ तेज़ी से दौड़ पड़ा- "मामूजान आ गए, मामूजान आ गए।" उसकी खुशी का ठिकाना न था। जब सबने आराम कर लिया तो अली अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाया और बोला मामू आप मेरे लिए क्या-क्या तोहफ़े लाए हैं। उसकी मासूम शक्ल देखकर सब हँसने लगे अम्मी ने आँखें दिखाते हुए कहा- "चुप कर, बहुत बातें बनाने लगा है।" 

तब मामूजान ने उसे प्यार से बुलाकर कहा- "क्यों नहीं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ लाया हूँ। ये लो नए कपड़े, खिलौने और ये देखो रिमोट से चलने वाली गाड़ी भी।" अली तो जैसे खुशी से बावरा हो गया। और मामू के गले लग गया। अम्मी ने कहा-"अब जाओ तुम ज़ेबा और फरमान के साथ खेलो । हम सब कल ईदगाह जाएँगे वहाँ मेला भी देखेंगे।"

अली सुबह से ही तैयार हो गया। तीनों बच्चे छत पर खेल रहे थे तभी अली की नज़र घर के पास वाली दुकान पर काम करते एक फटेहाल लड़के पर पड़ी। ज़ेबा और फ़रमान उसका मज़ाक़ बनाने लगे। 

ज़ेबा बोली,"उस लड़के को तो देखो कैसे फटे-पुराने कपड़े पहने है।" फ़रमान भी बोला,"हाँ- हाँ ऐसा लगता है कि कई दिनों से नहाया भी नहीं है। छी:! मुझे तो घिन आती है।" 

अली को यह सब अच्छा नहीं लगा उसने ज़ेबा और फ़रमान से कहा, "हमें किसी का मज़ाक नहीं बनाना चाहिए क्या पता उसकी कोई मज़बूरी हो जो वो ऐसे रह रहा है चलो उससे बात करके पूछते हैं।" 

वे तीनों छत से नीचे उतरकर सीधे दुकान पर गए और उस लड़के को बुलाकर पूछा कि आज ईद के दिन वह ऐसे क्यों बना हुआ है। क्या उसे मेला नहीं जाना? उसने अपना नाम आफ़ताब बताया। 

वह आँखों में आँसू भरकर बोला, "क्या कहूँ भाईजान! पिछली ईद तक तो मैं भी आपकी तरह खुशहाल जीवन जीता था; पर कुछ महीनों पहले अब्बा का व्यापार में बहुत नुकसान हुआ जिससे उन पर लोगों का कर्ज़ा हो गया। अब्बा ने अपना सम्मान बचाने के लिए जो कुछ भी बचा था सब बेचकर कर्ज़ा तो चुका दिया लेकिन हम सब सड़क पर आ गए। मेरी पढ़ाई छूट गई। अब अब्बा गली-गली फेरी लगाते हैं और मैं यहाँ दुकान पर काम करता हूँ तब जाकर किसी तरह दो वक्त का खाना मिल पाता है। अम्मी तो इस दुख से बीमार ही रहती हैं।"

अली से रहा न गया और वो आफ़ताब से बोला कि तुम अभी मेरे साथ घर चलो। दुकानदार से इज़ाजत लेकर आफताब अली के साथ चल पड़ा। घर पहुँचते ही अली जल्दी से अपने कमरे में जाकर वो सारे तोहफे ले आया जो उसके मामूजान उसके लिए लाए थे; जो उसे सबसे अज़ीज थे। वे सब उसने आफ़ताब को देते हुए कहा- "ईद मुबारक़ दोस्त।" उधर ज़ेबा और फ़रमान दौड़कर घर के बड़ों को बुला लाए। अपने बेटे अली को इस प्रकार नेकी की राह पर चलते देख अम्मी-अब्बू की आँखें भर आईं। वे उसकी बलाएँ लेने लगे। 

अली ने अपने अब्बू को आफ़ताब के अब्बा के बारे में बताया तो उन्होंने उन्हें अपनी फैक्ट्री में काम पर रखने का फैसला लिया। वो ख़ुद अली के साथ आफ़ताब के घर गए और उसके अम्मी-अब्बू को ईद की मुबारकबाद दी साथ ही उन्हें अगले दिन से फैक्ट्री में काम पर आने की बात भी कही। एक महीने की एडवांस सैलरी देकर उन्हें ईद का त्योहार धूमधाम से मनाने को कहकर वे घर लौट आए। अली खुश था कि अब आफ़ताब फिर से स्कूल जा सकेगा। आज की ईद अली के जीवन की सबसे खुशनुमा ईद थी। 


दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'


वर्ष 2020 के नाम पत्र


पता-

श्रीमान वर्ष 2020

वर्तमान नगर

शहर- जीवनगली


*अप्रत्याशित परिवर्तनों व जीवन की अमूल्य नियामतों का महत्त्व समझाने वाला वर्ष-2020*


प्रिय मित्र वर्ष-2020

तुम्हें प्यार भरा नमस्कार।

मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि तुम जिस उद्देश्य से आए थे उसमें अवश्य ही सफल हुए होगे। हम सब भी कुशल से हैं।

आज मैं आपके साथ आपके आगमन से लेकर विदाई की बेला तक के अनुभव को साँझा कर रही हूँ। बस यूँ जानिए कि जो भी उतार-चढ़ाव आए उन्हें इस पत्र में उड़ेल देना चाहती हूँ। आपको एक यादगार विदाई देने की ख़्वाहिश है मेरी। 

मुझे याद है कि कैसे हम सभी जनवरी में बड़ी बेसब्री से आपके आने की राह देख रहे थे। नए-नए सपने और उम्मीदों  की भारी-भरकम पोटली लेकर हमारे नयन आपको तक रहे थे। पर ये क्या आप आए तो लेकिन ऐसा लगा जैसे इस बार कुछ सबक सिखाने के लिए आए हैं।

हम लोग बस भाग रहे थे, बिना रुके, बिना सोचे-समझे, आपने तो बस ब्रेक ही लगा दिया। वो भी ऐसा-वैसा ब्रेक नहीं एयर प्रेशर वाला ब्रेक। पूरी दुनिया की रफ़्तार थाम दी। ये भी कोई तरीका होता है क्या अपनी बात समझाने का भला? हाँ मैं समझती हूँ  कि आप बताना चाहते थे कि हम ज़रा रुककर सोचे तो कि हम कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे है, क्यों कर रहे हैं? आप चाहते  थे कि हम समय का महत्व जाने, जीवन का मोल समझें, अपनों के साथ की कीमत जाने। प्राकृतिक संसाधनों की इज्ज़त करें और मनुष्य हैं तो मनुष्यता निभाएँ स्वयं को ईश्वर से ऊपर न समझें।

ऐसा नहीं है कि हम नहीं समझते बस भटक जाते हैं, स्वार्थी हो जाते हैं। वैसे यह भी सच है हम मनुष्य होते ही ऐसे हैं जब तक उँगली टेढ़ी न की जाए हमें सीधे-सीधे बात कहाँ समझ में आती है। वैसे आपने हमें छकाया भी खूब और रुलाया भी बहुत है लेकिन अपनों के साथ के, खूबसूरत पल भी दिए हैं। आत्ममंथन करने का अवसर भी दिया है।

आपने हमें कृतज्ञता सिखाई है। आपने सिखाया है कि हम जो भी हैं, जहाँ भी है और जैसे भी हैं कृतज्ञ बने हो सकता है किसी दूसरे के पास वो भी न हो जो हमारे पास है। 

सच कहूँ तो मैं आपको दिल से धन्यवाद कहना चाहती हूँ कि आपने इन अप्रत्याशित परिवर्तनों के बीच हमें मज़बूती से टिके रहना सिखाया। आपने जो भी सख्ती दिखाई उसमें छिपी सीख गहराई तक पहुँची है। बस इतनी ही विनती है कि हमारी नादानियों को अब दरकिनार करके खुशियों के फूल खिला दीजिए। खुशियों के पैगाम के साथ हमसे विदा लीजिए।

आपको प्यारी मुसकान के साथ विदाई।

शुभकामनाओं सहित

आपकी मित्र

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

बंगलुरू(कर्नाटक)

मैं हूँ बिंदास







अल्हड़, नटखट, सुलझी हुई

आत्मविश्वास से भरी हुई

अंदाज है मेरा बहुत खास

स्त्री हूँ मैं एकदम बिंदास



पानी सा मेरा मिज़ाज

हर रंग में ढल जाती हूँ

दीपों सी जगमगाती मैं

दीपाली कहलाती हूँ


आशाओं का दामन ना छोड़ूँ कभी

अंधेरों से मैं डरती नहीं

महफ़िल में रौनक लाती हूँ

कहते हसमुख मुझको सभी


दीपाली पंत तिवारी 'दिशा' 

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

सावन


कोयल कूके अमवा की डाली

गीत गाती मधुर-मधुर मतवाली

सावन के आने का संदेशा 

देती चहुँ ओर फैली हरियाली


तीज-त्योहार की रौनक छाई

धरती ने प्यारी छवि पाई

रिमझिम-रिमझिम सावन की फुहारें

मौसम ने भी ली अंगड़ाई


अति पावन सावन का महीना

दान-व्रत का उत्तम फल दीना

बम-बम भोले के जयकारों ने

सब जग की सुध-बुध ले लीना


दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

स्त्री

 मुझे नाज है अपने अस्तित्व पर

मैं नित नए-नए रूप बदल कर

लिए भावनाओं का ज्वार- भाटा

चलती हूँ अविचल कर्तव्य पथ पर


अब नहीं रहती मैं डरी-डरी

रहती हूँ आत्मविश्वास से भरी

बदल गया है लोगों का चलन

जब से मैं दुर्गा रूप धरी


सभी चुनौतियों को स्वीकार कर

मैं बन रही हूँ अब आत्मनिर्भर

देख सकेगी दुनिया उड़ान मेरी

लिखूँगी नाम अपना फलक पर


दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

धोखा/विश्वासघात

आज टेंडर खुलने वाला था। रवि बेसब्री से घोषणा का इंतज़ार कर रहा था तभी परिणाम घोषित होते हैं। रवि को पता चलता है कि टेंडर उसको न मिलकर उसके जीजा जी को मिल गया है। खैर घर की बात है सोचकर रवि खुश हुआ और जीजा जी को जी भरकर बधाई व शुभकामनाएँ दीं। घर आकर रवि टेंडर मिलने की खुशी में जीजा जी के घर शाम को होने वाली पार्टी के लिए तैयार हो रहा था कि तभी उसके मैनेजर का फोन आता है कि उसके जीजा जी की कंपनी ने भी उतनी ही कुटेशन दी थी जितनी उसने स्वयं भी भरी थी। रवि इसे एक इत्तेफाक मानकर पार्टी में पहुँचता है। लेकिन वहाँ पहुँचकर उसे अपनी बहन और जीजा जी की बातें सुनाई पड़ती हैं। जीजा जी (गले में हीरों का हार पहनाते हुए) रवि की बहन ऋचा से कह रहे थे यह सब तुम्हारी मेहनत का ही नतीजा है। अगर तुम रवि की कुटेशन हमें न बताती तो आज यह टेंडर हमारी कंपनी को न  मिल पाता।  ऋचा (कुटिल मुस्कान देते हुए ) अजी इस हीरों के हार का सवाल जो था। और वातावरण में हँसी के ठहाके गूँज उठे। इधर रवि अपनी बहन द्वारा किए गए इस विश्वासघात से सन्न रह गया। वह गुलदस्ते में कार्ड लगाकर जिस पर लिखा था हीरों का हार मुबारक हो बहन कमरे के बाहर ही छोड़ जाता है।

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

लिखे जो खत तुझे

आदरणीय समय ,

नमस्कार। 

बताइए तो ज़रा कैसा है आपका हाल? आप तो त्रिकालदर्शी हैं। आगा-पीछा सभी जानते है। बल्कि हम सभी मनुष्य तो इस कालचक्र में ऐसे फँसे है कि इससे बाहर ही नहीं निकल पाते। कहना तो बहुत कुछ है आपसे लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या लिखूँ और क्या छोड़ूँ। ऐसा करती हूँ कि पिछला और अगला छोड़ देती हूँ और वर्तमान पर ही गपशप करती हूँ। इस बार आपने ये कैसी करवट बदली है कि हम सभी का हाल बेहाल कर दिया है। क्या आप इस करोना के काल को खत्म नहीं कर सकते? देखिए न कैसे जन-धन की हानि हो रही है। देश की आर्थिक, सामाजिक स्थिति डाँवाडोल हो गयी है। मज़बूर लोग और ज्यादा मज़बूर हो गए हैं। अब आप ही बताएँ कि यह सब कब तक चलेगा। मैं आपसे विनती करती हूँ कि कुछ तो हम पर कृपा कीजिए और थोड़ी अपनी गति बढ़ा दीजिए ताकि यह समय जल्दी निकल जाए और फिर से वो दिन आएँ जब सब लोग घर-बाहर बिना किसी डर के आनंद से जीवन बिता पाएँ।

हम सभी ये जानते हैं और मानते भी हैं कि समय बड़ा बलवान होता है और समय से पहले ना कुछ होता है ना हुआ है। इसलिए मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करती हूँ कि हमारी नादानियों को नज़रअंदाज़ करते हुए क्षमा कर दें। क्योंकि  क्षमा तो बड़ों का गुण है।

हम सभी आपके बदलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। उम्मीद है आप जरूर बदलेंगे।

               आपकी प्रतीक्षा में

               दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

सपनों का कोई जेंडर नहीं होता


उसकी आँखों की वो चमक हमेशा मुझे आकर्षित करती थी। कहने को वो अभी बस पाँच साल की थी लेकिन समझदारी व आत्मविश्वास गजब का। आज जब वो अपनी माँ के साथ घर आई तो हाथ में एक रंगीन कागज़ हवाईजहाज़ था और वो उसे ऐसे उड़ा रही थी जैसे कोई ऊँची उड़ान भरना चाहती हो। मैंने कहा अरे मैना आज ये हवाईजहाज़ क्यों? और मैना ने जवाब दिया मैडम जी ये मेरे सपनों की उड़ान है। आज हमने अपने सपने लिखे हैं इस पर। देखना मैडम जी हम एक-एक कर अपने सारे सपने पूरे करेंगे और फिरसे अपने सपनों के हवाईजहाज़ को उड़ाने में तल्लीन हो गयी। मैना की दृढ़ता को देखकर बस दिल से यही दुआ निकली कि हे ईश्वर यह मैना किसी पिंजरे में कैद न होकर रह जाए।  इसके होंसले को टूटने मत देना।

-@दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

अमोल

'अमोल' हाँ यही तो नाम था उसका। कलेक्टर के नाम की तख्ती पर इस नाम को पढ़कर भूली हुई याद ताजा हो गयी। हमारी सोसायटी में कार साफ़ करता तो कभी अख़बार डालता। कितनी बार आमना-सामना होने पर मैं उससे पूछती क्यों तुम स्कूल नहीं जाते हो क्या? तो हँसते हुए कहता हाँ-हाँ जाता हूँ न मेमसाहब! पर रात को। मुझे लगा था शायद ऐसे ही कह रहा है। लेकिन अक्सर मेरा मन यही सोचता कि पढ़ने-लिखने की उम्र में ये बच्चा इस तरह काम कर रहा है। 

एक दिन जब मैं रात की शिफ्ट से लौटी तो देखा अमोल गेट के पास किताबों को हाथ में लिए रो रहा था। पूछने पर पता चला कि उसके घर वाले अब उसकी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और उसका नाम स्कूल से कटवा दिया है। वो मेरे पैरों पर गिर गया और बोला मेमसाहब मैं कुछ भी काम करूँगा लेकिन मैं पढ़ना चाहता हूँ। पढ़ाई के प्रति उसकी लगन देख मैं बहुत चकित थी। कुछ करने का आश्वासन देकर मैने अमोल को विदा किया। उसकी दर्द भरी पुकार ने रात भर सोने न दिया। 

सुबह होते ही मैने अपने पति से बात की। उन्होंने कहा कि क्या तुम इतनी बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हो? मैंने हाँ में सिर हिला दिया। तब उन्होंने भी मेरा साथ देने का फैसला लिया। 

हमने अमोल की पढ़ाई का खर्चा उठाने का फैसला किया और उसका दाख़िला एक अच्छे स्कूल में करवा दिया। अमोल ने हमें कभी निराश नहीं किया। अपनी पढ़ाई पूरी करके वो नौकरी ढूँढने लगा। इसी बीच हमारा तबादला अन्य शहर में हो गया और हमारा संपर्क अमोल से टूट गया। 

आज इतने वर्षों बाद जब एक ड्राइवर घर गाड़ी लेकर आया और बोला साहब ने बुलाया है तो समझ ही नहीं आया कि कौन साहब। अभी मैं तख्ती निहार ही रही थी कि सामने से एक  चपरासी ने आवाज़ लगाई साहब आ गए। मैने पीछे मुड़कर देखा तो अमोल ही तो था वो। पैर छूकर बोला, पहचाना मेमसाहब! मेरी आँखों से खुशी की अश्रुधारा बहने लगी।


©

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

बंगलुरु (कर्नाटक)

नज़र


घर का आँगन बुहारते हुए आज फ़िर रेखा ने देखा कि सामने वाले घर का नौकर उसे ही देख रहा था। ये पहली बार नहीं था। रेखा ने पहले भी कई बार उसे स्वयं को ऐसे घूरते देखा था। रेखा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो झाड़ू फेंककर सीधे उसके सामने जा पहुँची और बोली, 'आख़िर ये चल क्या रहा है? कितने दिनों से देख रही हूँ कि तुम मुझे ऐसे ही घूरते रहते हो, कुछ शर्म-लिहाज़ है या नहीं? हम अभी अंदर जाकर तुम्हारी मालकिन से शिकायत करते हैं।' वो एकदम घबरा गया और हाथ जोड़कर माफ़ी माँगने लगा। लेकिन रेखा तो आज चुप नही  रहने वाली थी बोली सच-सच बता दो नहीं तो आज तुम्हारा काम तमाम हो समझो। इतना सुनते ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वो रुँधे गले से बोला बहन हमारी नज़रों को बुरा न समझो। तुम्हार जित्ती हमार एक बहिन थी। दो महीने पहले करोना में चल बसी। जब हमने तुमको पहली बार देखा तो बिल्कुल हमार मुनिया जैसी ही लगी। तुमको देख हमें अपनी बहिन की बड़ी याद आती है। बार-बार तुम्हारे चेहरे पर ही हमार नज़रें टिक जात हैं। हमें माफ़ कर दो मुनिया। हम अब कभी भी ऐसे नहीं देखेंगे। सच कह रहे हैं, हमें हमारी मुनिया की कसम। रेखा को उसकी आँखों में प्यार और दुलार के सिवा कुछ नज़र नहीं आया और वो उसे बहिन की तरह ही डाँटकर बोली अगर बहन मानते हो तो पहले काहे नहीं कहा। हमें भी तो अपनी राखी के लिए एक भाई मिल जाता। फिर क्या दोनों की नजरें एक दूसरे को वात्सल्य से सराबोर कर रही थीं। आज एक अनजान शहर में दो लोग एक प्यारे रिश्ते में बँध गए। रेशम की डोर ने एक अटूट बँधन बाँध दिया।


दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

उलझे रिश्ते

 

जो बुना था रिश्तों का ताना-बाना

वो उलझ क्यों गया है

तेरा-मेरा बरसों का प्यार और विश्वास

आज दरक क्यों गया है

शाम होते ही जो लौट आता घरोंदे में

राही रास्ता भटक गया है

आगे कुछ समझ नहीं आ रहा। क्या करूँ...... उम्म..... स्नेहिल अपनी ग़ज़ल पूरी करना चाहता था लेकिन कुछ जम नहीं रहा था उसे। तभी चारों तरफ़ काग़ज़ों का ढेर देख नीता बड़बड़ाई। अजी अपनी कल्पनाओं से कब बाहर आएँगे। इन सबसे पेट नहीं भरता। आज राशन भी खत्म हो गया है क्या कुछ इंतज़ाम होगा आज के खाने का? इतना सुनते ही स्नेहिल उठा और दराज़ खोलकर रुपए निकाले और नीता की ओर बढ़ाते हुए बोला ये लो, महाराज को भेजकर राशन मँगा लो। सब कुछ तो है पर तुम हमेशा इस प्रकार की बातें क्यों करती हो कि जैसे हम गरीबों का जीवन बिता रहे हैं। स्नेहिल रुँधे गले से बोला तुम्हारा मन क्यों नहीं भरता?  

नीता भड़कते हुए बोली मैं तुम्हारी तरह संन्यासी नहीं हूँ। मैंने तुमसे शादी एशोआराम की ज़िंदगी जीने के लिए की थी नाकी तुम्हारी ये घिसी-पिटी कहानियाँ और कविताएँ सुनने के लिए। मुँह बनाते हुए खरी-खोटी सुनाकर नीता वहाँ से चली गई और स्नेहिल अपने उलझे रिश्ते की सिलवटें लिए फिर अपनी ग़ज़ल को पूरी करने में लग गया। 


जो बुना था रिश्तों का ताना-बाना

वो उलझ क्यों गया है

तेरा-मेरा बरसों का प्यार और विश्वास

आज दरक क्यों गया है

हर शाम लौट आता था घरोंदे में जो पंछी

रास्ते में भटक क्यों गया है

इन बढ़ती आकांक्षाओं का विष हमारी बुनियाद में 

फाँस-सा अटक क्यों गया है

©

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

बुद्धिमती









ज्यों चीर बढ़ा कान्हा ने, द्रौपदी की लाज बचाई

त्यों तिकड़म भिड़ा नारी, उसे मास्क के काम लाई

उसे मास्क के काम लाई, पति को पल्लू से बाँधा

बुद्धिमती ने एक ही तीर से, दो निशाना है साधा

एक ओर तो पति परमेश्वर का साथ है पाया

दूजी ओर भटके न पति इसका जुगाड़ लगाया।


©

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

उपदेश



मेरठ के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा


गद्य-लघुकथा
शीर्षक-उपदेश

रमाकांत संस्कृत के अध्यापक थे। आज ही तो कक्षा में विद्यार्थियों को नीति श्लोक पढ़ा रहे थे कि 
'वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥'
चारित्र का रक्षण बहुत यत्न से करना चाहिए । धन तो आता है और जाता है । धन से क्षीण होनेवाला क्षीण नहीं है, पर जिसका चरित्र चला गया उसका सब कुछ नष्ट होता है ।

लेक्चर समाप्त होते ही वो सीधे उस स्थान पर पहुँचे जिसे बदनाम गली के नाम से जाना जाता है। रात बारह बजे लड़खड़ाते कदमों से रमाकांत जी जब बस गिरने को ही थे कि एक विद्यार्थी ने उन्हें सँभाल लिया लेकिन उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी। वह समझ नहीं पाया कि विद्यालय में चरित्र के ऊपर उपदेश देने वाले अध्यापक स्वयं अपने चरित्र की रक्षा नहीं कर पाए।

सच्ची जीत

छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

*शीर्षक- सच्ची जीत*

मयंक हमेशा ही कक्षा में अव्वल आता था। इस बात से वह इतना प्रभावित हो चुका था कि उसे लगने लगा अब कोई उसे हरा नहीं सकता। विद्यालय की अध्यापिका श्रीमती रेखा ने जब यह नोटिस किया तब निर्णय लिया कि वह मयंक को गलत दिशा में नहीं जाने देंगी।

रेखा जी हिंदी विषय पढ़ाती थीं। उन्होंने कक्षा में एक सामूहिक गतिविधि का आयोजन किया। गतिविधि के अनुसार सभी समूहों को बारी-बारी व्याकरण के दिए गए विषयों को कक्षा में पढ़ाना था। रेखा जी ने पूरी कक्षा को सात-सात बच्चों के चार समूहों में बाँट दिया। हर समूह का एक नेता भी बनाया। मयंक अपने समूह का नेता बना। 

रेखा जी ने सभी विद्यार्थियों को नियम समझा दिए और कहा कि सच्ची जीत वह होती है जिसमें व्यक्तिगत उपलब्धि की बजाय अपने समूह के हर एक सदस्य को साथ लेकर जीत की ओर अग्रसर किया जाए। मयंक तो अकेला ही चलने का आदी था। उसे सबके साथ मिलकर काम करने में बड़ी उलझन हो रही थी। लेकिन नियम के अनुसार समूह के हर सदस्य की भागीदारी आवश्यक थी।

मयंक के समूह में एक लड़का था रवि जो पढ़ाई में कमज़ोर था। शुरुआत में तो मयंक बार-बार उसको धिक्कारता कि उसकी वजह से वो हार जाएगा। लेकिन जब गतिविधि के लिए कुछ ही दिन रह गए तब उसने रवि को स्वयं पढ़ाने का निर्णय लिया। लंच के समय या खेल के पीरियड में मयंक उसे लेकर  अलग बैठ जाता और दिए गए विषय को समझाने की कोशिश करता। धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी और रवि की पढ़ाई में रुचि बढ़ने लगी। अब वो भी मयंक की तरह होशियार हो गया। इस सब से रवि का आत्मविश्वास भी बहुत बढ़ गया। उसने मयंक का बहुत धन्यवाद किया।
पहले तो मयंक यह सब गतिविधि में अव्वल आने के लिए ही कर रहा था; परन्तु रवि के स्तर में सुधार आने से उसे स्वयं भी खुशी हो रही थी। तय तारीख पर गतिविधि का आयोजन हुआ। मयंक ने अपने समूह से रवि को ही मुख्य सदस्य के रूप में पढ़ाने का अवसर दिया। रवि का आत्मविश्वास देखते ही बनता था।
अध्यापिका रेखा जी तो मयंक का चेहरा देख रही थीं। आज उसकी आँखों में घमंड नहीं था बल्कि रवि की सफलता के लिए खुशी छलक रही थी। रेखा जी ने गतिविधि के परिणाम बताए। मयंक का समूह ही प्रथम आया था लेकिन इस बार सबसे अधिक प्रशंसा रवि को मिली। मयंक तो बार-बार रवि को गले लगाकर बधाई देते नहीं थक रहा था। रेखा जी को इस बात का सन्तोष था कि उनकी योजना काम कर गई और मयंक को सच्ची जीत का अर्थ समझ आ गया।



मोहभंग

हरियाणा के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक कहानी।

विधा-कहानी
वृंदा और सतीश दोनों ही अपने इकलौते पुत्र की शादी से बहुत खुश थे। उन्हें भरोसा था कि अब उनका पुत्र और वधू घर-गृहस्थी को अच्छे से सँभाल लेंगे। वे पहले से ही पुत्र के विवाह के बाद निश्चिंत जीवन के सपने देखते थे। वृंदा जी और सतीश जी की उम्र हो चुकी थी। अपने काम और भरण-पोषण के लिए वो निर्भर नहीं थे। लेकिन जैसे- जैसे उम्र बढ़ती है मनुष्य शारीरिक रूप से लाचार होने लगता है। ऐसे में उन्हें देखभाल और आराम की आवश्यकता महसूस थी। 

वृंदा जी बहुत जुझारू किस्म की महिला रही थीं। वह शारीरिक तकलीफों के बावजूद भी कामकाज में लगी रहती थीं। बहू के आने से घर में रौनक हो गई थी। शुरू के साल-छह महीने काफ़ी अच्छे से गुजरे। धीरे-धीरे बहू-बेटे की नादानियाँ बढ़ने लगीं। बहू अपने मायके का मोह नहीं छोड़ पाई थी। जब मौका लगे लंबे समय के लिए मायके चली जाती। उनका पुत्र रजत यह नहीं समझ पा रहा था कि इस तरह वह अपनी पत्नी नीता को जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना सीखा रहा है।

रजत की सोच थी कि स्त्री-पुरुष को मिल-जुलकर काम करने चाहिए। इसलिए वह हर काम में ज़्यादा से ज़्यादा नीता की सहायता करता था। लेकिन नीता पर इन सब बातों का उल्टा असर हुआ। इन सब चीज़ों के लिए वो अपने पति रजत का धन्यवाद कहने की बजाय गैर-जिम्मेदार हो गई।

धीरे-धीरे सतीश और वृंदा जी को लगने लगा कि वे इस घर में सिर्फ़ एक शोपीस की तरह हैं; जिसे घर में सजाकर तो रखा जाता है लेकिन उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। उन दोनों को परिवार होकर भी अकेलेपन का एहसास होता। वो जब कभी इस बारे में रजत से बात करते तो वो उन्हें ही काट खाने को आता। वे दोनों अंदर ही अंदर घुटने लगे। दोनों की उम्र हो चुकी थी और उम्र के इस पड़ाव पर वे मान-सम्मान और अपनेपन की आस लिए दिन काट रहे थे।

सालभर में रजत और नीता के एक बिटिया भी हो गयी। दादा-दादी बनने की खुशी में वृंदा और राजेश जी बहुत खुश थे। उन्हें अपने सूने जीवन में एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। लेकिन उनकी यह खुशी भी बहुत दिनों नही टिक सकी। नीता ने स्वयं और अपनी बेटी को अपने कमरे तक ही सीमित कर लिया था। वह बिना ज़रूरत कमरे के बाहर ही न निकलती। वृंदा जी खुद ही कई बार बहाने से उसके कमरे में जाकर लतिका को ले आतीं।

नीता की नादानी इस हद तक बढ़ गई थी कि उसे यह भी फ़िक्र नहीं थी कि दिन भर में उसके बूढ़े सास-ससुर क्या खाएँगे। वो सुबह रजत के जाते ही अपने कमरे में बंद जो जाती फिर शाम तक बाहर निकलने का नाम न लेती। रजत से कहने का कुछ लाभ न था। जब कभी वृंदा या सतीश जी कुछ कहने की कोशश करते तो रजत सुने का अनसुना कर देता या उन्हें ही उल्टा सुना देता था। नीता भी अब आश्वस्त हो गयी थी कि रजत के आगे मेरे सास-ससुर की कुछ नहीं चल सकती और रजत अब मेरे ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं सुनेगा। इन सब बातों से उसे और बल मिलने लगा। अब तो वो रजत का भी ध्यान नहीं रखती थी। 

अब वो ऑफिस से रजत के आने का इंतज़ार करती ताकि कुछ काम हो। बिटिया होने के बाद तो उसने बिल्कुल ही हाथ खड़े कर दिए थे। बेचारा रजत दिन भर ऑफिस की भाग दौड़ में लगा रहता और घर पहुँचकर भी नीता के बताए कामों में उलझा रहता फिर रात में बच्ची के रोने पर उसे भी घुमाता रहता। इन सब बातों से रजत की सेहत पर भी असर पड़ने लगा। लेकिन मूर्ख नीता को अब भी अक्ल नहीं आई कि जिस पति के दम पर वह ऐश कर रही है अगर वही स्वस्थ नहीं रहेगा तो क्या होगा?

वृंदा जी और राजेश यह सब देख मन ही मन घुलते; लेकिन कर भी क्या सकते थे। उनके पुत्र ने उनके मुँह पर ताला लगा रखा था। एक दिन अचानक रजत की तबियत ज़्यादा खराब हो गई। इसका कारण अत्यधिक काम व नींद पूरी न होना था। डॉक्टर ने उसे कम से कम पंद्रह दिनों का बेडरेस्ट बताया। इन पंद्रह दिनों में रजत ने नीता की दिनचर्या अच्छे से जान ली। माता-पिता की जिन बातों को वह झूठ मान रहा था और सास-ससुर की असुरक्षा की भावना समझ रहा था; वह सच निकलीं थीं। 

उसे अब अपनी गलतियों का अहसास हो रहा था। सही मायनों में आज उसका मोहभंग हो गया था। रजत ने तुरंत ही नीता को अपने पास बुलाया और बहुत साफ़ शब्दों में समझा दिया कि एक पत्नी, माँ और बहू होने के नाते उससे क्या उम्मीदें हैं। साथ ही यह भी कहा कि अब वह किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं करेगा। रजत का बदला रूप देखकर नीता को भी समझ में आ गया कि अब उसे परिवार में अपनी भागीदारी निभानी पड़ेगी।

स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
दिल्ली पब्लिक स्कूल
बंगलुरु (कर्नाटक)