दिनांक - 21-01-20
विधा - कविता
जान है वतन,आन है वतन
वतन पर मिटने वालों का
स्वाभिमान है वतन
जीने की पुख़्ता वजह
बसता है सबके हृदय
हो गए गर जुदा वतन से
जीवन रेगिस्तान है
जाना पड़े कहीं भी मुझे
लौटकर यहीं आऊँगा
जब भी पुकारेगा वतन
मैं कहीं न रुक पाऊँगा
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
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