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शनिवार, 19 सितंबर 2009

"क्या लिखूं क्या छोडूं, सवाल कई उठते हैं, उस व्यक्तित्व के आगे मैं स्वयं को बौना पाती हूँ"

"क्या लिखूं क्या छोडूं, सवाल कई उठते हैं, उस व्यक्तित्व के आगे मैं स्वयं को बौना पाती हूँ" लताजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनके बारे में लिखने-कहने से पहले यही लगता है कि क्या लिखें और क्या छोडें। वो शब्द ही नहीं मिलते जो उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उनके होने के महत्त्व को जता सकें। 'सुर सम्राज्ञी' कहें, 'भारत कोकिला' कहें या फिर संगीत की आत्मा, सब कम ही लगता है. लेकिन मुझे इस बात पर गर्व है कि लता जी जैसा रत्न भारत में उत्पन्न हुआ है. लता जी को 'भारत रत्न' पुरूस्कार का मिलना इस पुरूस्कार के नाम को सत्य सिद्ध करता है. उनकी प्रतिभा के आगे उम्र ने भी अपने हथियार डाल दिए हैं. लता जी की उम्र का बढ़ना ऐसा लगता है जैसे कि उनके गायन क्षमता की बेल दिन-प्रतिदिन बढती ही जा रही है. और हम सब भी यही चाहते हैं कि यह अमरबेल कभी समाप्त न हो, इसी तरह पीढी दर पीढी बढती ही रहे-चलती ही रहे.
आगे पढिये मेरी कलम से हिन्दयुग्म पर आवाज में रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिन्दी दिवस

दो नावों पर पैर रखे हम
मार्डनिटी पै सवार हैं
न तो हिन्दी ठीक से जाने
इंग्लिश में भी अग्यान हैं

क ख ग घ कबके भूले
बारहखड़ी भी याद नहीं
अंग्रेजी के चक्कर में
हिन्दी भी बर्बाद हुई

राष्ट्रभाषा है हिन्दी अपनी
उसमें जीरो लाते हो
ह्रास हुआ है जब इसका
तो अब क्यों तुम चिल्लाते हो

हिन्दी-हिन्दी चिल्लाने से
होगा कुछ भी ग्यान नहीं
गलत-सलत पढ़ने-लिखने से
बढ़ता कोइ मान नही

पहले शुद्ध करो उच्चारण
शुद्ध-अशुद्ध का ग्यान करो
शंकाओं का करो निवारण
फिर हिन्दी पर मान करो

एक दिवस से क्या होगा
नित इसका अभ्यास करो
सुन्दर रचनाओं से पूर्ण
हिन्दी का इतिहास पढो़

भाषा कोइ भी हो पहले
सही ग्यान जरूरी है
विचारों के आदान-प्रदान की
भाषा ही तो धूरी है

प्रण करो अभी से सब मिलकर
भाषा का सही ग्यान करेंगे
शुद्ध लिखेंगे, शुद्ध पढेंगे
फिर खुद पर अभिमान करेंगे

शनिवार, 5 सितंबर 2009

शिक्षक

शिक्षक
गैर होकर भी अपना सा
लगे कोई मित्र सा
मुश्किल कोई भी हो खड़ी
ढूंढकर दे हल उसका
डाँटता है जो कभी
अच्छाई उसमें भी छिपी
हारकर जो बैठे हम
देता है वो होंसला
ज्ञान देता है हमें
मार्गदर्शक भी बने
बनके दिया वो जलता है
करता दूर अज्ञानता

सच कहा गया है कि कल्पना की उडान को कोई नहीं रोक सकता

सच कहा गया है कि कल्पना की उडान को कोई नहीं रोक सकता। कल्पनाएँ इंसान को सारे जहान की सैर करा देती हैं. ये इंसान की कल्पना ही तो है की वो धरती को माँ कहता है, तो कभी चाँद को नारी सोंदर्य का प्रतीक बना देता है. आसमान को खेल का मैदान, तो तारों को खिलाड़ियों की संज्ञा दे देता है. तभी तो कहते है कल्पना और साहित्य का गहरा सम्बन्ध है. जिस व्यक्ति की सोच साहित्यिक हो वो कहीं भी कोई भी काम करे, पर उसकी रचनात्मकता उसे बार-बार साहित्य के क्षेत्र की और मोड़ने की कोशिश करती है. गुलशन बावरा एक ऐसा ही व्यक्तित्व है जो अपनी साहित्यिक सोच के कारण ही फिल्म संगीत से जुड़े. हालांकि पहले वो रेलवे में कार्यरत थे, लेकिन उनकी कल्पना कि उड़ान ने उन्हें फिल्म उद्योग के आसमान पर स्थापित कर दिया, जहाँ उनका योगदान ध्रुव तारे की तरह अटल और अविस्मर्णीय है. आगे पढिये मेरी कलम हिन्दयुग्म पर आवाज में रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत