हरियाणा के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक कहानी।
विधा-कहानी
वृंदा और सतीश दोनों ही अपने इकलौते पुत्र की शादी से बहुत खुश थे। उन्हें भरोसा था कि अब उनका पुत्र और वधू घर-गृहस्थी को अच्छे से सँभाल लेंगे। वे पहले से ही पुत्र के विवाह के बाद निश्चिंत जीवन के सपने देखते थे। वृंदा जी और सतीश जी की उम्र हो चुकी थी। अपने काम और भरण-पोषण के लिए वो निर्भर नहीं थे। लेकिन जैसे- जैसे उम्र बढ़ती है मनुष्य शारीरिक रूप से लाचार होने लगता है। ऐसे में उन्हें देखभाल और आराम की आवश्यकता महसूस थी।
वृंदा जी बहुत जुझारू किस्म की महिला रही थीं। वह शारीरिक तकलीफों के बावजूद भी कामकाज में लगी रहती थीं। बहू के आने से घर में रौनक हो गई थी। शुरू के साल-छह महीने काफ़ी अच्छे से गुजरे। धीरे-धीरे बहू-बेटे की नादानियाँ बढ़ने लगीं। बहू अपने मायके का मोह नहीं छोड़ पाई थी। जब मौका लगे लंबे समय के लिए मायके चली जाती। उनका पुत्र रजत यह नहीं समझ पा रहा था कि इस तरह वह अपनी पत्नी नीता को जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना सीखा रहा है।
रजत की सोच थी कि स्त्री-पुरुष को मिल-जुलकर काम करने चाहिए। इसलिए वह हर काम में ज़्यादा से ज़्यादा नीता की सहायता करता था। लेकिन नीता पर इन सब बातों का उल्टा असर हुआ। इन सब चीज़ों के लिए वो अपने पति रजत का धन्यवाद कहने की बजाय गैर-जिम्मेदार हो गई।
धीरे-धीरे सतीश और वृंदा जी को लगने लगा कि वे इस घर में सिर्फ़ एक शोपीस की तरह हैं; जिसे घर में सजाकर तो रखा जाता है लेकिन उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। उन दोनों को परिवार होकर भी अकेलेपन का एहसास होता। वो जब कभी इस बारे में रजत से बात करते तो वो उन्हें ही काट खाने को आता। वे दोनों अंदर ही अंदर घुटने लगे। दोनों की उम्र हो चुकी थी और उम्र के इस पड़ाव पर वे मान-सम्मान और अपनेपन की आस लिए दिन काट रहे थे।
सालभर में रजत और नीता के एक बिटिया भी हो गयी। दादा-दादी बनने की खुशी में वृंदा और राजेश जी बहुत खुश थे। उन्हें अपने सूने जीवन में एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। लेकिन उनकी यह खुशी भी बहुत दिनों नही टिक सकी। नीता ने स्वयं और अपनी बेटी को अपने कमरे तक ही सीमित कर लिया था। वह बिना ज़रूरत कमरे के बाहर ही न निकलती। वृंदा जी खुद ही कई बार बहाने से उसके कमरे में जाकर लतिका को ले आतीं।
नीता की नादानी इस हद तक बढ़ गई थी कि उसे यह भी फ़िक्र नहीं थी कि दिन भर में उसके बूढ़े सास-ससुर क्या खाएँगे। वो सुबह रजत के जाते ही अपने कमरे में बंद जो जाती फिर शाम तक बाहर निकलने का नाम न लेती। रजत से कहने का कुछ लाभ न था। जब कभी वृंदा या सतीश जी कुछ कहने की कोशश करते तो रजत सुने का अनसुना कर देता या उन्हें ही उल्टा सुना देता था। नीता भी अब आश्वस्त हो गयी थी कि रजत के आगे मेरे सास-ससुर की कुछ नहीं चल सकती और रजत अब मेरे ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं सुनेगा। इन सब बातों से उसे और बल मिलने लगा। अब तो वो रजत का भी ध्यान नहीं रखती थी।
अब वो ऑफिस से रजत के आने का इंतज़ार करती ताकि कुछ काम हो। बिटिया होने के बाद तो उसने बिल्कुल ही हाथ खड़े कर दिए थे। बेचारा रजत दिन भर ऑफिस की भाग दौड़ में लगा रहता और घर पहुँचकर भी नीता के बताए कामों में उलझा रहता फिर रात में बच्ची के रोने पर उसे भी घुमाता रहता। इन सब बातों से रजत की सेहत पर भी असर पड़ने लगा। लेकिन मूर्ख नीता को अब भी अक्ल नहीं आई कि जिस पति के दम पर वह ऐश कर रही है अगर वही स्वस्थ नहीं रहेगा तो क्या होगा?
वृंदा जी और राजेश यह सब देख मन ही मन घुलते; लेकिन कर भी क्या सकते थे। उनके पुत्र ने उनके मुँह पर ताला लगा रखा था। एक दिन अचानक रजत की तबियत ज़्यादा खराब हो गई। इसका कारण अत्यधिक काम व नींद पूरी न होना था। डॉक्टर ने उसे कम से कम पंद्रह दिनों का बेडरेस्ट बताया। इन पंद्रह दिनों में रजत ने नीता की दिनचर्या अच्छे से जान ली। माता-पिता की जिन बातों को वह झूठ मान रहा था और सास-ससुर की असुरक्षा की भावना समझ रहा था; वह सच निकलीं थीं।
उसे अब अपनी गलतियों का अहसास हो रहा था। सही मायनों में आज उसका मोहभंग हो गया था। रजत ने तुरंत ही नीता को अपने पास बुलाया और बहुत साफ़ शब्दों में समझा दिया कि एक पत्नी, माँ और बहू होने के नाते उससे क्या उम्मीदें हैं। साथ ही यह भी कहा कि अब वह किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं करेगा। रजत का बदला रूप देखकर नीता को भी समझ में आ गया कि अब उसे परिवार में अपनी भागीदारी निभानी पड़ेगी।
स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
दिल्ली पब्लिक स्कूल
बंगलुरु (कर्नाटक)
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