मेरठ के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा
गद्य-लघुकथा
शीर्षक-उपदेश
रमाकांत संस्कृत के अध्यापक थे। आज ही तो कक्षा में विद्यार्थियों को नीति श्लोक पढ़ा रहे थे कि
'वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥'
चारित्र का रक्षण बहुत यत्न से करना चाहिए । धन तो आता है और जाता है । धन से क्षीण होनेवाला क्षीण नहीं है, पर जिसका चरित्र चला गया उसका सब कुछ नष्ट होता है ।
लेक्चर समाप्त होते ही वो सीधे उस स्थान पर पहुँचे जिसे बदनाम गली के नाम से जाना जाता है। रात बारह बजे लड़खड़ाते कदमों से रमाकांत जी जब बस गिरने को ही थे कि एक विद्यार्थी ने उन्हें सँभाल लिया लेकिन उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी। वह समझ नहीं पाया कि विद्यालय में चरित्र के ऊपर उपदेश देने वाले अध्यापक स्वयं अपने चरित्र की रक्षा नहीं कर पाए।
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