जिस युग में तुलसीदास जी का जन्म हुआ था उस युग में धर्म, समाज, राजनीति आदि क्षेत्रों में पारस्परिक विभेद और वैमनस्य का बोलबाला था। धर्म के क्षेत्र में एक ओर हिंदू-मुस्लिम तथा दूसरी ओर शैव-शाक्त, वैष्णव मतों में आपसी ईर्ष्या-द्वेष बढ़ता जा रहा था। हिन्दू समाज अवर्ण-सवर्ण के भेदभाव में विभज्य हो रहा था। घोर अशान्ति का वातावरण उत्पन्न हो गया था। ऐसे समय में गोस्वामी तुलसीदास जी ने तत्कालीन परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन करके समाज में व्याप्त वैमनस्य को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने इस विषमता को दूर करने के लिए समन्वय की प्रवृत्ति को अपनाया। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। अपने इसी समन्वयात्मक दृष्टिकोण के कारण तुलसीदास लोकनायक कहलाए।
शैव और वैष्णव मत का समन्वय-
तुलसीदास जी ने दोनों मतों में समन्वय स्थापित करने के लिए एक ओर शिव के मुँह से कहलवाया-
सोई मम इष्ट देव रघुवीरा। सेवत जाइ सद मुनि धीरा॥
और शिव को राम जी का उपासक सिद्ध कर दिया। दूसरी ओर उन्होंने राम से कहलवाया-
शिव द्रोही मम दास कहाया। सो नर मोहि सपनेहुँ नहिं भाया॥
इस प्रकार राम को शिव जी का अनन्य प्रेमी सिद्ध कर दिया। इतना ही नहीं तुलसी ने सेतु निर्माण होने पर राम के द्वारा शिव की प्रतिष्ठा एवं पूजा-अर्चना कराके राम को शिव का अनन्य भक्त सिद्ध कर दिया।
वैष्ण्व एवं शाक्त मत का समन्वय-
तुलसी ने वैष्णवों और शाक्तों के वैमनस्य को दूर करने के लिए शक्ति की उपासना की और सीता को ब्रह्म की शक्ति बताकर उनकी प्रार्थना की-
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव वेद नहिं जाना॥
भव-भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहनि स्वनस विहारिनि॥
ज्ञान और भक्ति का समन्वय-
तुलसीदास के समय में ज्ञानियों और भक्तों में भी बड़ा विवाद था। वे एक-दूसरे को तुच्छ समझते थे। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति दोनों की महत्ता स्थापित की और कहा कि दोनों मार्गों में कोई भेद नहीं है।
भगतहिं ज्ञानहिं नहिं कुछ भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥
इस प्रकार उन्होंने दोनों की समता सिद्ध की। उन्होंने भक्ति को ज्ञान और वैराग्य से युक्त बताया। भक्ति ज्ञान से संयुक्त होकर ही सुशोभित होती है।
श्रुति सम्मत हरि भगति पथ संजुत विरति विवेक।
सगुण और निर्गुण का समन्वय-
तुलसीदास के समय में भक्तों में सगुण और निर्गुण को लेकर भी लोक-विवाद चला आ रहा था। सूरदास जी ने ’भ्रमरगीत’ में निर्गुण का खण्डन करते हुए सगुण की महत्ता का प्रतिपादन किया है। परंतु तुलसीदास ने निर्गुण एवं सगुण के विद्वेष को मिटाते हुए दोनों में समन्वय स्थापित किया और बताया कि निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं है।
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कुछ भेदा।
तुलसीदास जी का मानना है कि ब्रह्म निर्गुण और निराकार ही है तथापि वह दयालु और शरणागत वत्सल है और भक्तों के कष्ट निवारण के लिए वह सगुण रूप भी धारण करता है।
द्विज और शूद्र का समन्वय-
तुलसीदास के समय में छुआ-छूत का भेदभाव अत्यधिक बढ़ा हुआ था। उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से घृणा करते थे। इस सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए ’रामचरित मानस’ में गुरु वशिष्ठ को शूद्र निषादराज से भेंट करते हुए दिखाकर ब्राह्मण एवं शूद्रों में भी समन्वय स्थापित किया है। उन्होंने उच्च क्षत्रिय वंशी राम को वानर, भालू, रीछ आदि से प्रेमालिंगन करते दिखाकर उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में समन्वय का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
राजा और प्रजा में समन्वय-
तुलसीदास जी के समय में राजा और प्रजा के बीच गहरी खाई थी। उन्होंने इस खाई को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने बताया- ’सेवक कर पद, नयन से, मुख सो साहिब होइ’ अर्थात राजा को मुख के समान और प्रजा को हाथ, पैर व नेत्र के समान होना चाहिए। जिस तरह शरीर में मुख और अन्य अंगों के बीच तालमेल होता है, उसी तरह तुलसीदास जी ने राजा और प्रजा के समन्वय पर जोर दिया है।
मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
साहित्यिक क्षेत्र में समन्वय-
तुलसीदास जी ने समन्वय की स्थापना हेतु अवधी व ब्रज भाषा दोनों में काव्य रचना की है। यही नहीं उन्होंने रामचरितमानस में संस्कृत में श्लोकों की रचना की है। उन्होंने मात्रिक व वार्णिक दोनों प्रकार के छंदों को अपनाया है। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक और गीति सभी काव्य-रूपों को समान महत्त्व दिया है।
दार्शनिक विचार-
तुलसीदास जी के काव्य में दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं। उत्तरकांड में उनके दार्शनिक विचार अत्यन्त स्पष्टता से व्यक्त हुए हैं। तुलसीदास जी ने राम को ब्रह्म कहा है जो नर का रूप धारण करके रघुकुल के राजा बने हैं-
परमात्मा ब्रह्म नर रूपा। होहहिं रघुकुल भूषन भूपा॥
जीव के बारे में तुलसीदास का विचार है कि जीव ईश्वर का अंश है, अविनाशी है, चेतन है और निर्मल है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी॥
संसार के बारे में वे कहते हैं कि सारा संसार और उसके चराचर जीव सब माया से उत्पन्न हुए हैं-
मम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा॥
मोक्ष-साधन के बारे में उनका मत स्पष्ट है कि ज्ञान मार्ग द्वारा मोक्ष पना अत्यंत कठिन है, परंतु राम-भजन द्वारा इच्छा न होते हुए भी यह प्राप्त हो जाता है।
भक्ति स्वतंत्र सकल गुन खानी। बिनु सत्संग न पावहि प्रानी॥
पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सत्संगति करि संसृति अंता॥
निष्कर्ष-
तुलसीदास जी और उनके काव्य के विषय में जितना कहा जाए उतना कम है। वे एक उच्चकोटि के समन्वयवादी कवि थे। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान दिया है। इसीलिए तुलसीदास एक महान कवि, लोकनायक, सफल समाज-सुधारक एवं समन्वयवाद के प्रतिष्ठापरक संत कहलाते हैं।
शैव और वैष्णव मत का समन्वय-
तुलसीदास जी ने दोनों मतों में समन्वय स्थापित करने के लिए एक ओर शिव के मुँह से कहलवाया-
सोई मम इष्ट देव रघुवीरा। सेवत जाइ सद मुनि धीरा॥
और शिव को राम जी का उपासक सिद्ध कर दिया। दूसरी ओर उन्होंने राम से कहलवाया-
शिव द्रोही मम दास कहाया। सो नर मोहि सपनेहुँ नहिं भाया॥
इस प्रकार राम को शिव जी का अनन्य प्रेमी सिद्ध कर दिया। इतना ही नहीं तुलसी ने सेतु निर्माण होने पर राम के द्वारा शिव की प्रतिष्ठा एवं पूजा-अर्चना कराके राम को शिव का अनन्य भक्त सिद्ध कर दिया।
वैष्ण्व एवं शाक्त मत का समन्वय-
तुलसी ने वैष्णवों और शाक्तों के वैमनस्य को दूर करने के लिए शक्ति की उपासना की और सीता को ब्रह्म की शक्ति बताकर उनकी प्रार्थना की-
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव वेद नहिं जाना॥
भव-भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहनि स्वनस विहारिनि॥
ज्ञान और भक्ति का समन्वय-
तुलसीदास के समय में ज्ञानियों और भक्तों में भी बड़ा विवाद था। वे एक-दूसरे को तुच्छ समझते थे। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति दोनों की महत्ता स्थापित की और कहा कि दोनों मार्गों में कोई भेद नहीं है।
भगतहिं ज्ञानहिं नहिं कुछ भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा॥
इस प्रकार उन्होंने दोनों की समता सिद्ध की। उन्होंने भक्ति को ज्ञान और वैराग्य से युक्त बताया। भक्ति ज्ञान से संयुक्त होकर ही सुशोभित होती है।
श्रुति सम्मत हरि भगति पथ संजुत विरति विवेक।
सगुण और निर्गुण का समन्वय-
तुलसीदास के समय में भक्तों में सगुण और निर्गुण को लेकर भी लोक-विवाद चला आ रहा था। सूरदास जी ने ’भ्रमरगीत’ में निर्गुण का खण्डन करते हुए सगुण की महत्ता का प्रतिपादन किया है। परंतु तुलसीदास ने निर्गुण एवं सगुण के विद्वेष को मिटाते हुए दोनों में समन्वय स्थापित किया और बताया कि निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं है।
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कुछ भेदा।
तुलसीदास जी का मानना है कि ब्रह्म निर्गुण और निराकार ही है तथापि वह दयालु और शरणागत वत्सल है और भक्तों के कष्ट निवारण के लिए वह सगुण रूप भी धारण करता है।
द्विज और शूद्र का समन्वय-
तुलसीदास के समय में छुआ-छूत का भेदभाव अत्यधिक बढ़ा हुआ था। उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से घृणा करते थे। इस सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए ’रामचरित मानस’ में गुरु वशिष्ठ को शूद्र निषादराज से भेंट करते हुए दिखाकर ब्राह्मण एवं शूद्रों में भी समन्वय स्थापित किया है। उन्होंने उच्च क्षत्रिय वंशी राम को वानर, भालू, रीछ आदि से प्रेमालिंगन करते दिखाकर उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में समन्वय का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
राजा और प्रजा में समन्वय-
तुलसीदास जी के समय में राजा और प्रजा के बीच गहरी खाई थी। उन्होंने इस खाई को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने बताया- ’सेवक कर पद, नयन से, मुख सो साहिब होइ’ अर्थात राजा को मुख के समान और प्रजा को हाथ, पैर व नेत्र के समान होना चाहिए। जिस तरह शरीर में मुख और अन्य अंगों के बीच तालमेल होता है, उसी तरह तुलसीदास जी ने राजा और प्रजा के समन्वय पर जोर दिया है।
मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
साहित्यिक क्षेत्र में समन्वय-
तुलसीदास जी ने समन्वय की स्थापना हेतु अवधी व ब्रज भाषा दोनों में काव्य रचना की है। यही नहीं उन्होंने रामचरितमानस में संस्कृत में श्लोकों की रचना की है। उन्होंने मात्रिक व वार्णिक दोनों प्रकार के छंदों को अपनाया है। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक और गीति सभी काव्य-रूपों को समान महत्त्व दिया है।
दार्शनिक विचार-
तुलसीदास जी के काव्य में दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं। उत्तरकांड में उनके दार्शनिक विचार अत्यन्त स्पष्टता से व्यक्त हुए हैं। तुलसीदास जी ने राम को ब्रह्म कहा है जो नर का रूप धारण करके रघुकुल के राजा बने हैं-
परमात्मा ब्रह्म नर रूपा। होहहिं रघुकुल भूषन भूपा॥
जीव के बारे में तुलसीदास का विचार है कि जीव ईश्वर का अंश है, अविनाशी है, चेतन है और निर्मल है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी॥
संसार के बारे में वे कहते हैं कि सारा संसार और उसके चराचर जीव सब माया से उत्पन्न हुए हैं-
मम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर विविध प्रकारा॥
मोक्ष-साधन के बारे में उनका मत स्पष्ट है कि ज्ञान मार्ग द्वारा मोक्ष पना अत्यंत कठिन है, परंतु राम-भजन द्वारा इच्छा न होते हुए भी यह प्राप्त हो जाता है।
भक्ति स्वतंत्र सकल गुन खानी। बिनु सत्संग न पावहि प्रानी॥
पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सत्संगति करि संसृति अंता॥
निष्कर्ष-
तुलसीदास जी और उनके काव्य के विषय में जितना कहा जाए उतना कम है। वे एक उच्चकोटि के समन्वयवादी कवि थे। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान दिया है। इसीलिए तुलसीदास एक महान कवि, लोकनायक, सफल समाज-सुधारक एवं समन्वयवाद के प्रतिष्ठापरक संत कहलाते हैं।
अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंअति उत्तम पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंSamichinam post
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंBht accha tha....
जवाब देंहटाएंVery good ji
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