जो बुना था रिश्तों का ताना-बाना
वो उलझ क्यों गया है
तेरा-मेरा बरसों का प्यार और विश्वास
आज दरक क्यों गया है
शाम होते ही जो लौट आता घरोंदे में
राही रास्ता भटक गया है
आगे कुछ समझ नहीं आ रहा। क्या करूँ...... उम्म..... स्नेहिल अपनी ग़ज़ल पूरी करना चाहता था लेकिन कुछ जम नहीं रहा था उसे। तभी चारों तरफ़ काग़ज़ों का ढेर देख नीता बड़बड़ाई। अजी अपनी कल्पनाओं से कब बाहर आएँगे। इन सबसे पेट नहीं भरता। आज राशन भी खत्म हो गया है क्या कुछ इंतज़ाम होगा आज के खाने का? इतना सुनते ही स्नेहिल उठा और दराज़ खोलकर रुपए निकाले और नीता की ओर बढ़ाते हुए बोला ये लो, महाराज को भेजकर राशन मँगा लो। सब कुछ तो है पर तुम हमेशा इस प्रकार की बातें क्यों करती हो कि जैसे हम गरीबों का जीवन बिता रहे हैं। स्नेहिल रुँधे गले से बोला तुम्हारा मन क्यों नहीं भरता?
नीता भड़कते हुए बोली मैं तुम्हारी तरह संन्यासी नहीं हूँ। मैंने तुमसे शादी एशोआराम की ज़िंदगी जीने के लिए की थी नाकी तुम्हारी ये घिसी-पिटी कहानियाँ और कविताएँ सुनने के लिए। मुँह बनाते हुए खरी-खोटी सुनाकर नीता वहाँ से चली गई और स्नेहिल अपने उलझे रिश्ते की सिलवटें लिए फिर अपनी ग़ज़ल को पूरी करने में लग गया।
जो बुना था रिश्तों का ताना-बाना
वो उलझ क्यों गया है
तेरा-मेरा बरसों का प्यार और विश्वास
आज दरक क्यों गया है
हर शाम लौट आता था घरोंदे में जो पंछी
रास्ते में भटक क्यों गया है
इन बढ़ती आकांक्षाओं का विष हमारी बुनियाद में
फाँस-सा अटक क्यों गया है
©
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
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