घर का आँगन बुहारते हुए आज फ़िर रेखा ने देखा कि सामने वाले घर का नौकर उसे ही देख रहा था। ये पहली बार नहीं था। रेखा ने पहले भी कई बार उसे स्वयं को ऐसे घूरते देखा था। रेखा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो झाड़ू फेंककर सीधे उसके सामने जा पहुँची और बोली, 'आख़िर ये चल क्या रहा है? कितने दिनों से देख रही हूँ कि तुम मुझे ऐसे ही घूरते रहते हो, कुछ शर्म-लिहाज़ है या नहीं? हम अभी अंदर जाकर तुम्हारी मालकिन से शिकायत करते हैं।' वो एकदम घबरा गया और हाथ जोड़कर माफ़ी माँगने लगा। लेकिन रेखा तो आज चुप नही रहने वाली थी बोली सच-सच बता दो नहीं तो आज तुम्हारा काम तमाम हो समझो। इतना सुनते ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वो रुँधे गले से बोला बहन हमारी नज़रों को बुरा न समझो। तुम्हार जित्ती हमार एक बहिन थी। दो महीने पहले करोना में चल बसी। जब हमने तुमको पहली बार देखा तो बिल्कुल हमार मुनिया जैसी ही लगी। तुमको देख हमें अपनी बहिन की बड़ी याद आती है। बार-बार तुम्हारे चेहरे पर ही हमार नज़रें टिक जात हैं। हमें माफ़ कर दो मुनिया। हम अब कभी भी ऐसे नहीं देखेंगे। सच कह रहे हैं, हमें हमारी मुनिया की कसम। रेखा को उसकी आँखों में प्यार और दुलार के सिवा कुछ नज़र नहीं आया और वो उसे बहिन की तरह ही डाँटकर बोली अगर बहन मानते हो तो पहले काहे नहीं कहा। हमें भी तो अपनी राखी के लिए एक भाई मिल जाता। फिर क्या दोनों की नजरें एक दूसरे को वात्सल्य से सराबोर कर रही थीं। आज एक अनजान शहर में दो लोग एक प्यारे रिश्ते में बँध गए। रेशम की डोर ने एक अटूट बँधन बाँध दिया।
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
सार्थक।
जवाब देंहटाएं