'अमोल' हाँ यही तो नाम था उसका। कलेक्टर के नाम की तख्ती पर इस नाम को पढ़कर भूली हुई याद ताजा हो गयी। हमारी सोसायटी में कार साफ़ करता तो कभी अख़बार डालता। कितनी बार आमना-सामना होने पर मैं उससे पूछती क्यों तुम स्कूल नहीं जाते हो क्या? तो हँसते हुए कहता हाँ-हाँ जाता हूँ न मेमसाहब! पर रात को। मुझे लगा था शायद ऐसे ही कह रहा है। लेकिन अक्सर मेरा मन यही सोचता कि पढ़ने-लिखने की उम्र में ये बच्चा इस तरह काम कर रहा है।
एक दिन जब मैं रात की शिफ्ट से लौटी तो देखा अमोल गेट के पास किताबों को हाथ में लिए रो रहा था। पूछने पर पता चला कि उसके घर वाले अब उसकी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं और उसका नाम स्कूल से कटवा दिया है। वो मेरे पैरों पर गिर गया और बोला मेमसाहब मैं कुछ भी काम करूँगा लेकिन मैं पढ़ना चाहता हूँ। पढ़ाई के प्रति उसकी लगन देख मैं बहुत चकित थी। कुछ करने का आश्वासन देकर मैने अमोल को विदा किया। उसकी दर्द भरी पुकार ने रात भर सोने न दिया।
सुबह होते ही मैने अपने पति से बात की। उन्होंने कहा कि क्या तुम इतनी बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हो? मैंने हाँ में सिर हिला दिया। तब उन्होंने भी मेरा साथ देने का फैसला लिया।
हमने अमोल की पढ़ाई का खर्चा उठाने का फैसला किया और उसका दाख़िला एक अच्छे स्कूल में करवा दिया। अमोल ने हमें कभी निराश नहीं किया। अपनी पढ़ाई पूरी करके वो नौकरी ढूँढने लगा। इसी बीच हमारा तबादला अन्य शहर में हो गया और हमारा संपर्क अमोल से टूट गया।
आज इतने वर्षों बाद जब एक ड्राइवर घर गाड़ी लेकर आया और बोला साहब ने बुलाया है तो समझ ही नहीं आया कि कौन साहब। अभी मैं तख्ती निहार ही रही थी कि सामने से एक चपरासी ने आवाज़ लगाई साहब आ गए। मैने पीछे मुड़कर देखा तो अमोल ही तो था वो। पैर छूकर बोला, पहचाना मेमसाहब! मेरी आँखों से खुशी की अश्रुधारा बहने लगी।
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दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
बंगलुरु (कर्नाटक)
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