अली के पैर आज ज़मीन पर नहीं थे। हो भी क्यों भई आज उसका पसंदीदा त्योहार 'ईद' जो आया था। ईद आने के एक सप्ताह पहले से ही वो कल्पनाओं की उड़ाने भरने लगता। इस बार की ईद तो और भी ख़ास थी क्योंकि उसके मामूजान जो इस ईद पर आने वाले थे। अली तो मामूजान से मिलने वाले उपहारों के बारे में सोच-सोचकर फूला नहीं समा रहा था। फिर मामूजान के साथ उनके बच्चे ज़ेबा और फरमान भी तो आएँगे। कितना मजा आएगा।
ईद का दिन भी पास आ गया। अगले दिन ईद है लेकिन अली की निगाहें तो बस दरवाजे पर टिकी थीं। वो बड़ी बेचैनी से मामूजान और उनके परिवार का इंतजार कर रहा था। गाड़ी की आवाज़ सुनते ही वो चिल्लाता हुआ तेज़ी से दौड़ पड़ा- "मामूजान आ गए, मामूजान आ गए।" उसकी खुशी का ठिकाना न था। जब सबने आराम कर लिया तो अली अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाया और बोला मामू आप मेरे लिए क्या-क्या तोहफ़े लाए हैं। उसकी मासूम शक्ल देखकर सब हँसने लगे अम्मी ने आँखें दिखाते हुए कहा- "चुप कर, बहुत बातें बनाने लगा है।"
तब मामूजान ने उसे प्यार से बुलाकर कहा- "क्यों नहीं। मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ लाया हूँ। ये लो नए कपड़े, खिलौने और ये देखो रिमोट से चलने वाली गाड़ी भी।" अली तो जैसे खुशी से बावरा हो गया। और मामू के गले लग गया। अम्मी ने कहा-"अब जाओ तुम ज़ेबा और फरमान के साथ खेलो । हम सब कल ईदगाह जाएँगे वहाँ मेला भी देखेंगे।"
अली सुबह से ही तैयार हो गया। तीनों बच्चे छत पर खेल रहे थे तभी अली की नज़र घर के पास वाली दुकान पर काम करते एक फटेहाल लड़के पर पड़ी। ज़ेबा और फ़रमान उसका मज़ाक़ बनाने लगे।
ज़ेबा बोली,"उस लड़के को तो देखो कैसे फटे-पुराने कपड़े पहने है।" फ़रमान भी बोला,"हाँ- हाँ ऐसा लगता है कि कई दिनों से नहाया भी नहीं है। छी:! मुझे तो घिन आती है।"
अली को यह सब अच्छा नहीं लगा उसने ज़ेबा और फ़रमान से कहा, "हमें किसी का मज़ाक नहीं बनाना चाहिए क्या पता उसकी कोई मज़बूरी हो जो वो ऐसे रह रहा है चलो उससे बात करके पूछते हैं।"
वे तीनों छत से नीचे उतरकर सीधे दुकान पर गए और उस लड़के को बुलाकर पूछा कि आज ईद के दिन वह ऐसे क्यों बना हुआ है। क्या उसे मेला नहीं जाना? उसने अपना नाम आफ़ताब बताया।
वह आँखों में आँसू भरकर बोला, "क्या कहूँ भाईजान! पिछली ईद तक तो मैं भी आपकी तरह खुशहाल जीवन जीता था; पर कुछ महीनों पहले अब्बा का व्यापार में बहुत नुकसान हुआ जिससे उन पर लोगों का कर्ज़ा हो गया। अब्बा ने अपना सम्मान बचाने के लिए जो कुछ भी बचा था सब बेचकर कर्ज़ा तो चुका दिया लेकिन हम सब सड़क पर आ गए। मेरी पढ़ाई छूट गई। अब अब्बा गली-गली फेरी लगाते हैं और मैं यहाँ दुकान पर काम करता हूँ तब जाकर किसी तरह दो वक्त का खाना मिल पाता है। अम्मी तो इस दुख से बीमार ही रहती हैं।"
अली से रहा न गया और वो आफ़ताब से बोला कि तुम अभी मेरे साथ घर चलो। दुकानदार से इज़ाजत लेकर आफताब अली के साथ चल पड़ा। घर पहुँचते ही अली जल्दी से अपने कमरे में जाकर वो सारे तोहफे ले आया जो उसके मामूजान उसके लिए लाए थे; जो उसे सबसे अज़ीज थे। वे सब उसने आफ़ताब को देते हुए कहा- "ईद मुबारक़ दोस्त।" उधर ज़ेबा और फ़रमान दौड़कर घर के बड़ों को बुला लाए। अपने बेटे अली को इस प्रकार नेकी की राह पर चलते देख अम्मी-अब्बू की आँखें भर आईं। वे उसकी बलाएँ लेने लगे।
अली ने अपने अब्बू को आफ़ताब के अब्बा के बारे में बताया तो उन्होंने उन्हें अपनी फैक्ट्री में काम पर रखने का फैसला लिया। वो ख़ुद अली के साथ आफ़ताब के घर गए और उसके अम्मी-अब्बू को ईद की मुबारकबाद दी साथ ही उन्हें अगले दिन से फैक्ट्री में काम पर आने की बात भी कही। एक महीने की एडवांस सैलरी देकर उन्हें ईद का त्योहार धूमधाम से मनाने को कहकर वे घर लौट आए। अली खुश था कि अब आफ़ताब फिर से स्कूल जा सकेगा। आज की ईद अली के जीवन की सबसे खुशनुमा ईद थी।
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
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