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रविवार, 7 अगस्त 2011

ऐ दोस्त


कब तुमने मेरा हाथ थामा
पता ही न चला
कब तुम मेरे अज़ीज बन गये
पता ही न चला

आहिस्ता से रगों में बहते लहु की तरह
कब धड़कनों में उतर गये
पता ही न चला

बचपन की गलियों से गुजरते हुए
यौवन की दहलीज़ तक
कब रिश्ते गहराते चले गए
पता ही न चला

आज जब दूर हो तो
इस गहराई की हुई है भनक
हर रिश्ते की खुशबू से
आती है बस तेरी ही महक

कब तेरा दामन छूटा
पता ही न चला
कब तू मुझसे रूठा
पता ही न चला

आ..एक बार आजा,
देती हैं सदाएँ, मेरी धड़कनें तुझको
अधूरी हूँ तेरे बिना,
आज यह एहसास है मुझको

भूल कर सब, ढूँढें एक मौका नया
आ फिर शुरु करें दोस्ती का सिलसिला

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