पलखों के बंद झरोखों से
बहुत से ख़्वाब देखे थे मैंने
आकाश पर टिमटिमाते अनगिनत
तारों की तरह सुनहरे, सुंदर,
रुपहले, झिलमिलाते ख़्वाब
इस डर से कभी न उठाई पलखें
कहीं माँग न ले कोई इनका हिसाब
घुटने की आदत हो गई है इन ख़्वाबों को
अब ये नहीं पुकारते
लेकिन ये भी सच है कि अपनी खामोशियों में ही
कहीं है अक्सर चित्कारते
कब तक करूँ अनसुनी इस पुकार को
कैसे खोलूँ इन बंद पिंजरों के द्वार को
है प्रश्न कि यह अन्तर्द्वंद कब तलक चलता रहेगा?
और कब इन ख़्वाबों को हकीकत का रंग मिलेगा ?
बहुत से ख़्वाब देखे थे मैंने
आकाश पर टिमटिमाते अनगिनत
तारों की तरह सुनहरे, सुंदर,
रुपहले, झिलमिलाते ख़्वाब
इस डर से कभी न उठाई पलखें
कहीं माँग न ले कोई इनका हिसाब
घुटने की आदत हो गई है इन ख़्वाबों को
अब ये नहीं पुकारते
लेकिन ये भी सच है कि अपनी खामोशियों में ही
कहीं है अक्सर चित्कारते
कब तक करूँ अनसुनी इस पुकार को
कैसे खोलूँ इन बंद पिंजरों के द्वार को
है प्रश्न कि यह अन्तर्द्वंद कब तलक चलता रहेगा?
और कब इन ख़्वाबों को हकीकत का रंग मिलेगा ?
jab aankhen khol man bahar kee dunia me kuchh kam karega .
जवाब देंहटाएंnice