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शनिवार, 20 जुलाई 2013

ख़्वाब

पलखों के बंद झरोखों से
बहुत से ख़्वाब देखे थे मैंने
आकाश पर टिमटिमाते अनगिनत
तारों की तरह सुनहरे, सुंदर,
रुपहले, झिलमिलाते ख़्वाब
इस डर से कभी न उठाई पलखें
कहीं माँग न ले कोई इनका हिसाब
घुटने की आदत हो गई है इन ख़्वाबों को
अब ये नहीं पुकारते
लेकिन ये भी सच है कि अपनी खामोशियों में ही
कहीं है अक्सर चित्कारते
कब तक करूँ अनसुनी इस पुकार को
कैसे खोलूँ इन बंद पिंजरों के द्‍वार को
है प्रश्‍न कि यह अन्तर्द्वंद कब तलक चलता रहेगा?
और कब इन ख़्वाबों को हकीकत का रंग मिलेगा ?

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