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बुधवार, 20 जुलाई 2022

मैं वृक्ष हूँ

 मैं वृक्ष हूँ

जड़ें मेरी ज़मीन में हैं गढ़ी

आँखें मेरी आसमान से लड़ीं

स्वाभिमान से लहलहाता हूँ मैं

दानदाता कहाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

मेरा रोम-रोम समर्पित है

मानवता के लिए, जो भी अर्जित है

दिन-रात लुटाता हूँ मैं

कभी नहीं जताता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

रोक लेता हूँ, भूमि के कटाव को

चढ़ी नदी के बहाव को

तापमान को गिराता हूँ मैं

बरसात भी करवाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

पथिक को देता छाया 

भूखे को कंद मूल 

पंछियों को आसरा दिलाता हूँ मैं

जीवन आसान बनाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

तुम्हारे घर में सजीं चीजों में

खेत-खलिहान और बगीचों में

शान से लहराता हूँ मैं

कागज़-कलम बनाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

रीढ़ हूँ मैं तुम्हारी

मेरे बिना जीना भारी

बीज़ से बीज़ बनाता हूँ मैं

एक वृक्ष तुम भी लगाओ

बस इतना ही चाहता हूँ मैं




दीपाली पंत तिवारी 'दिशा' 

बैंगलूर (कर्नाटक)

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-07-2022) को चर्चा मंच    "तृषित धरणी रो रही"  (चर्चा अंक 4499)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

    जवाब देंहटाएं
  2. ब्लॉग का ताला खोलिए।
    मैटर सलेक्ट नहीं होता है चर्चा में लेने के लिए।

    जवाब देंहटाएं