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शनिवार, 16 नवंबर 2013

एक सपना हुआ है पूरा


एक सपना हुआ है पूरा
जो कब से था अधूरा
आज मेरे अल्फाज़ों को एक नाम मिल गया
वर्षों पहले हुए आगाज़ को अंजाम मिल गया
अब तो यह सिलसिला चलता ही रहेगा
मंजिल की तरफ़ कारवाँ बढ़ता ही चलेगा
कुछ और नई कोंपलें फूटेंगी, मस्तिष्क की जमीं पर
ले कल्पनाओं की उड़ानें, पहुँचेंगी दूर, कहीं क्षितिज पर

मेरा प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

किताब ऑनलाइन स्टोरों पर उपलब्ध हो रही है। इंफीबीम पर उपलब्ध हो गई है। 

http://www.infibeam.com/Books/Us-Paar-Se-Aati-Aawaz-Deepali-Pant-Tiwari/9789381394588.html

रविवार, 15 सितंबर 2013

हिन्दी भाषा

सुडौल बनावट अक्षरों की,
वैज्ञानिकता से जो भरी ।
ब्राह्‌मीलिपि से है जन्मी,
हिन्दी की लिपि देवनागरी ॥

सहज, सरल और सुंदर,
शब्दों का अथाह समुंदर ।
खींचे शब्दों के चित्र
हिन्दी भाषा है विचित्र

रस, छंद, या अलंकार
साहित्य में इनकी भरमार
भावनाओं का ज्वार-भाटा
प्रकट करे हिन्दी भाषा

कल्पनाओं को दे उड़ान
है हमारे देश की शान
संतों, कवियों, जन-जन की भाषा
एक ही है हिन्दी भाषा

सोमवार, 2 सितंबर 2013

भारतीय रेल



कश्मीर हो या कन्याकुमारी
सभी जगह ले जाती रेल
हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई
सभी धर्मों का करती मेल



बच्चा बूढ़ा और जवान
कोई ज़मींदार कोई किसान
करते हैं सब इसकी सवारी
सबको प्यारी रेल हमारी




रेल से सबकी दोस्ती है
यही देश को जोड़ती है
इसमें सफ़र करे हिंदुस्तान
रेल हमारे देश की शान

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

बरसाती मेढक













दोस्तों कुछ लोग होते हैं बड़े ही विचित्र
हर शुक्रवार को बदले सिनेमाहॉल में जैसे चलचित्र
इसी कारण तो सभी कहें इनको बरसाती मेढक
आते ही मुसीबतों की वर्षा करते दोस्तों संग बैठक
अक्सर ये सच्ची दोस्ती का राग अलापते हैं
इसी के नाम पर अपना काम निकालते हैं
रंग बदलना इनकी फितरत में शामिल है
सच पूछो ये इंसानियत के कातिल हैं
यही नहीं गिरगिट भी इन पर गुस्सा करता है
करते हो मुझे क्यों बदनाम  ऐसा अक्सर कहता है
इतने रंग तो मैंने भी नहीं बदले जितने तुम लोग बदलते हो
बरसात जाते ही गधे के सिर से सींग जैसे नदारद मिलते हो

रक्षाबंधन












इस धागे में बँधा है प्यार अपार
बहन की भाई के लिए दुआएँ हज़ार
अपनों के लिए सुरक्षा का विश्‍वास
हमेशा करीब बने रहने का अहसास

यह डोर सुदूर भी दिल के तारों को जोड़ देती है
हमारी ज़िन्दगी में दूरियों को पाट नित नए मोड़ देती है
खोल देती है भावनाओं के बंद द्‍वार
हटाए उपजी हुई द्‍वेष की खरपतवार

शनिवार, 20 जुलाई 2013

ख़्वाब

पलखों के बंद झरोखों से
बहुत से ख़्वाब देखे थे मैंने
आकाश पर टिमटिमाते अनगिनत
तारों की तरह सुनहरे, सुंदर,
रुपहले, झिलमिलाते ख़्वाब
इस डर से कभी न उठाई पलखें
कहीं माँग न ले कोई इनका हिसाब
घुटने की आदत हो गई है इन ख़्वाबों को
अब ये नहीं पुकारते
लेकिन ये भी सच है कि अपनी खामोशियों में ही
कहीं है अक्सर चित्कारते
कब तक करूँ अनसुनी इस पुकार को
कैसे खोलूँ इन बंद पिंजरों के द्‍वार को
है प्रश्‍न कि यह अन्तर्द्वंद कब तलक चलता रहेगा?
और कब इन ख़्वाबों को हकीकत का रंग मिलेगा ?

बदलाव की बयार भली लग रही है

बदलाव की बयार भली लग रही है
जो न थे तैयार उन्हें खल रही है

अक्सर भूल जाते हैं पायदानों पर चढ़ने वाले
तरक्की की पहली सीढ़ी नीचे से ही चढ़ी है

बोए थे जो बीज कभी एक उम्र पहले
उसकी फसल आज पक कर  खड़ी है

हो रहे हैं पस्त अब हौंसले दुश्मनों के
उम्मीद की किरण ए दिशा दिख रही है

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

इंतजार का फल मीठा होता है

देर ही से सही हर एक ख्वाब सच होता है
सच ही तो है कर्मों का हिसाब यहीं होता है

यूँ तो ग़मों के दौर में कई बार एतबार टूटा मेरा
ये अब जाना इंतजार का फल भी मीठा होता है

कोई कितना ही समझे कि वो खुदा हो गया है
ए दिशा सबके चेहरे का नकाब यहीं हटता है

शनिवार, 29 जून 2013

समझो ए नादनो

काश ये नांदा समझ पाते इन इशारों को
हमने गिरते देखा है कितनी ही बुलंद मीनारों को

आज जो जर्रा है कल फलक पर पहुँच सकता है
आसमान पर चमकते चाँद को भी ग्रहण लग सकता है

वक्‍त का ऊँट कहो कब इक करवट बैठा है
बिन पेंदी का लोटा है कहीं भी लुढ़क सकता है

समझो इन हवाओं के रुख को ए नासमझो
घमंड से भरा ये सर कभी भी कट सकता है

गुरुवार, 20 जून 2013

प्रकृति का आक्रोश




















सीना फटा आकाश का
या धरती ने करवट ली है
ए दोस्तों समझो इसको
ये प्रकृति ने दस्तक दी है

खिलौने के जैसे खेलते हैं हम
जब तब इन प्राकृतिक उपादानों से
तंग आ गई है अब कुदरत भी
हम धूर्त, कपटी और नादानों से

कब तलक चुप बैठे, सिसके
और तड़पती रहे अपने हाल पे
चाख हृदय लेकर झपटी तो
ग्रास बन गए हम काल के

सुनो इस वीभत्स चित्कार को
या फिर कहूँ इस ललकार को
गर अब भी न बदला चलन
फिर कौन रोकेगा इस तलवार को

मंगलवार, 4 जून 2013

पर्यावरण

सघन वन और घटा घनघोर
नभ पे छाई लालिमा चहुँ ओर
पर्वतों से नदियाँ निकलती
डालियों पर कलियाँ खिलती
देखकर सब दंग हैं
ये सब पर्यावरण के अंग हैं

पंछियों का डेरा चमन में
सौंधी सुगंध बसे पवन में
बादलों से गिरता पानी
कहता कुदरत की कहानी
फूलों के जितने रंग हैं
ये सब पर्यावरण के अंग हैं

यह क्षेत्र विस्तृत है बड़ा
प्रकृति की भेंटों से भरा
भरता मन में उमंग है
ये सब पर्यावरण के अंग हैं

शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतंत्र है इक ताश का पत्‍ता


तंत्र मंत्र के चक्‍कर से
अभी तक हम न निकल पाए
देखो हमारे मदारी नेता
घूमते हैं गणतंत्र का झुनझुना बजाए
जो स्वयं न समझ पाए कभी
इस तंत्र का सही मतलब
वही आज सरेआम फिरते हैं
वतन परस्ती का तमगा लगाए
तो सोच लो ए आम जनता
ये गणतंत्र है इक ताश का पत्‍ता
नेता बनकर बैठा जुआरी
इस देश की बाज़ी लगाए

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

क्या मैं स्वतंत्र हूँ ?




है प्रश्न बहुत गंभीर
कर देता है मुझे अधीर
देता है दिन रात दस्तक
पूछता है-क्या मैं स्वतंत्र हूँ ?
कक्षा में पढ़ाए गए थे जब गणतंत्र के विचार
तब शिक्षक ने बताए थे हमारे मौलिक अधिकार
इस गणतंत्र में सभी स्वतंत्र हैं कुछ भी कहने के लिए
सहमति या विरोध का मत देने के लिए
लेकिन आज जब भी कोई आवाज़ उठाता है
सबसे पहले उसका मौलिक अधिकार छीना जाता है
फिर क्यों न उठे यह प्रश्न- क्या मैं स्वतंत्र हूँ ?
गणतंत्र है मेरे लिए फिर भी मैं क्यूँ परतंत्र हूँ।


शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

क्या है यह योग?



तन और मन का आपसी संतुलन
या फिर आत्मा का परमात्मा से मिलन
हैं संदेह और प्रश्न बहुत से
कुछ दूसरों से कुछ स्वयं से
जब पढ़ा, समझा तो जाना
यह तो है सदियों पुराना
हर युग से, हर परम्परा से इसका नाता है
हिन्दी में योग तो अंग्रेजी में योगा कहलाता है
जिसको जिस रूप में भी भा जाए
वह इसे अपने जीवन में अपनाए
तन और मन की शांति के लिए
एक नए युग की क्रांति के लिए
करो अपना जीवन योग को समर्पित
तन और मन दोनों ही होंगे पवित्र
तो उठ खड़े हो, आलस्य का त्याग करो
अपनाकर योग सभी रोगों का नाश करो