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रविवार, 2 अगस्त 2009

चौराहे पर रुसवा होते महापुरुष

क्या सिर्फ मूर्तियाँ लगाना सम्मान का प्रतीक
हमारा भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिसने ना जाने कितने ही महापुरूषों को जन्म दिया है.यह एहसास हमें भी गर्व देता है कि हम ऐसे ही देश के वासी हैं. लेकिन अक्सर मेरे ज़हन में कई सवाल उठते हैं कि क्या हमारे देश के महापुरुषों ने जो भी कार्य किये , कठिनाईयाँ उठायीं वो इसलिए कि उनकी आत्मा, विचारों तथा मार्गदर्शन को मिट्टी की मूर्तियों में परिवर्तित कर स्थापित कर दिया जाये ? जब जब उनका जन्म दिवस या मृत्यु दिवस आये तो उनके बारे में गुण्गान कर, शब्दों की चासनी में लपेटे हुए भाषण देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाये. या फिर उनके नाम पर जिलों, मार्गों, पार्कों या फिर संस्थानो के नाम रख दिये जाएँ. और अहम सवाल यह कि महापुरुषों के नाम पर समाज को बाँट दिया जाये तथा हिंसा फैलायी जाए.
आज हमारे देश के नेता गण महापुरुषों की मूर्तियाँ तो लगवा देते हैं लेकिन उनके प्रति श्रद्धाभाव उनमें कहीं नहीं नज़र आता. चौराहों और पार्कों में खड़ी ये मूर्तियाँ अपने आत्म्सम्मान को पल-पल कुचलता हुआ देखती हैं. पर क्या करें वो तो पत्थर की मूर्तियाँ हैं कर भी क्या सकती हैं. यही बात शायद हम सभी के ज़हन में भी रहती है कि पत्थर की मूर्ति का क्या मान और क्या अपमान ? जब हम सभी जानते हैं कि इंसान का व्यक्तित्व, उसके कर्म, उसके विचार, उसका सम्मान किसी मूर्ति में निहित नहीं बल्कि उसके द्वारा दिये गये मार्गदर्शन में है. तो फिर हम पत्थर की मूरत पर क्यों मर मिटने के लिये तैयार हो जाते हैं. हम उस महान व्यक्तित्व ने जो राह दिखायी है उस पर चलने के लिये क्यों तैयार नहीं ?
कहते हैं कि मानो तो पत्थर में भगवान न मानो तो इंसान भी पत्थर. यही हाल आज हमारे महापुरुषों की मूर्तियों का है. कहीं तो वो चिड़ियों के बीट करने का स्थान हैं तो कहीं उनकी छाँव में जानवर आराम कर लेते हैं. अभी हाल ही में मैने अख़बार में पढ़ा था कि जिनेवा में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा पर जूते टाँगे हुए थे. किस्सा कुछ यूँ है कि बिहार के प्रभात चौधरी और उनका परिवार जिनेवा घूमने गया था वहाँ शॉपिंग करते समय उन्होंने देखा कि एक जूते के शो रूम के बाहर गौतम बुद्ध जी का पुतला रखा है और उसके गले में जूते डिस्प्ले के लिये टाँगे गये हैं. उनकी बेटी से यह देखा नहीं गया और उसने शोरूम में जाकर इस बात का विरोध किया साथ ही उन्होंने बिहार वापस आकर मिनिस्टरी ऑफ एक्सटर्नल अफेयर में लिखित रूप से शिकायत भी की. खैर ये तो सिर्फ एक किस्सा है. समझे आप कि किस तरह हम मूर्तियाँ बनाकर अपने महापुरुषों का सम्मान करते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि जब अपने ही देश में इन महापुरुषों का सम्मान नहीं तो फिर अन्यत्र का क्या कहें. अब इस मुद्दे को लेकर सिर्फ कटाक्ष या बहस ही की जा सकती है कि दूसरे देश ने हमारे महापुरुष का अपमान क्यों किया. उन्हें माफी माँगनी पड़ेगी या फिर उनसे जवाब तलब किया जायेगा आदि-आदि-आदि
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या महापुरुषों की मूर्तियाँ लगाना ही सम्मान का प्रतीक है ?

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