कह्ते हैं कि भगवान श्रद्धा-भक्ति और विश्वास के भूखे होते हैं. श्रद्धा से किया गया स्मरण मात्र भी प्रभु को खुश करने के लिये काफ़ी है .लेकिन उनका बनाया इंसान इन बातों को नही समझता. उसकी नजरों में पैसों के बिना किसी चीज का कोई मोल नही है.
जी हाँ मैं बात कर रही हूँ. वैष्णों धाम तथा ऐसे ही कई तीर्थों की जहां श्रद्धालु दूर-दूर से अपनी मुरादें पूरी होने की आस लिये प्रभु दर्शन को आते हैं लेकिन वहां आकर उन्हें मिलता है तिरस्कार. ’जय माता दी’ के नारों के बीच रास्ते की कठ्नाईयों को भुलाते हुए जो श्रद्धालु माता के द्वार पहुँचते हैं ,उन्हें क्या पता होता है कि यहां उनके द्वारा लायी गयी भेंट का कोई आदर नहीं अपितु उसे तो कूड़े की तरह एक कोने में फ़ेंक दिया जायेगा और प्रसाद स्वरूप उन्हें धक्के मिलेंगे ,प्रभु दर्शन तो दूर की बात है.
आज सभी तीर्थस्थानों में प्रोफ़ेशनलिज्म इस कदर हावी हो गया हैकि लोगों की भावनायें कहीं भी मायने नहीं रखती. तीर्थस्थानों में बैठे पुजारियों को तो अपने नोटों से मतलब. इनका शीश प्रभु के आगे नहीं बल्कि ५०० और १००० के नोटों की हरियाली के आगे झुकता है।
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