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शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

बरसाती मेढक


कहते हैं कि बरसात हो और मेढकों के टर्राने की आवाज सुनने को न मिले ऐसा हो ही नही सकता । जितनी जयादा बारिश उतनी ही जयादा मेढकों की आवाजें । लेकिन यह भी सच है कियह बरसाती मेढक बारिश के बाद कहाँ हवा हो जाते हैं यह किसी को पता नही लगता । आज समाज में संसकृति कि रक्षा करने का दम भरने वाले दलों की हालत भी इन बरसाती मेढकों के जैसी ही है जो वेलेंतैन डे आते ही अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं और उसके बाद इनका दूर- दूर तक नाम नज़र नही आता । समाज में बलात्कार , नशा , देह व्यापार तथा बच्चों के साथ दुराचार आदि नित्य दुष्कर्म हो रहें हैं तब यह संसकृति के रखवाले कहाँ खो जाते हैं । मदद तो दूर कि बात है तब अख़बार व चैनलों में इनके बयान भी नज़र नही आते । रही भारतीय संस्कर्ति और सभ्यता की बात तो इन कथित दलों के प्रतिनिधियों की छोटी सोच से कहीं जयादा विस्तृत है । सिर्फ़ चर्चित होने के लिए भारतीय संस्कृति का झुनझुना बजाने वाले ये दल साल भर में केवल वेलेंतैन डे पर ही शहरों में जगह जगह उपद्रव कर कौन सी संसकृति का परिचय देते हैं यह तो वे स्वयं ही परिभाषित कर सकते हैं।
--दिशा

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