रविवार, 30 दिसंबर 2012

क्या कहूँ अब?


माँ, बहन, पत्नी, बेटी और प्रेमिका
न जाने कैसा-कैसा रूप मैंने धरा
इसके कदमों तले अस्मिता मेरी कुचलती रही
फिर भी इस आदमी की तबियत बहलती नहीं
कैसे जिऊँ अब मैं, कहो जाऊँ कहाँ ?
है कौन जगह ऐसी, बच पाऊँ जहाँ
हर तरकीब मैंने अपना कर देख ली
हालात पे मेरे कुदरत भी रो दी
हे प्रभु! तुम बताओ मैं क्या कहूँ अब?
कर दो तुम भस्म मेरे ये रूप सब
मैं कुछ भी नहीं सिर्फ़ एक ज़िस्म हूँ
मनुष्यों के बाज़ार की एक किस्म हूँ
इससे ज़्यादा मेरी कोई औकात नहीं
बेचो या खरीदो कोई बात नहीं
गर सुन सकते हो मेरी आत्मा की पुकार
तो बस इतना कर दो मुझ पर उपकार
कोख छीन लो मुझसे मेरी, मुझे बाँझ कर दो
चाहे आज, अभी मेरे जीवन की साँझ कर दो
पर मैं, ऐसे आदमी को, नहीं देना चाहती
एक पल भी जीने का अधिकार
जो मेरा खून और दूध पीकर हो बड़ा
और करे फिर मेरा ही बलात्कार

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

कल फिर आएगी दूसरी की बारी



आत्मा तो तभी मर गई थी
जब वो छली गई थी
हाँ बचे थे कुछ प्राण शेष
तड़पते हुए बचे-खुचे अवशेष
हो गए अब वो भी विसर्जित
करके मानव समाज को तिरस्कृत
छोड़ कर एक टीस वो गई
उठाकर बड़े-बड़े प्रश्न कई
नर का नारी से हर रिश्ता झूठा है
तुमने ज़िस्म नहीं आत्मा को लूटा है
सिर्फ एक शरीर ही तो बन कर रह गई है नारी
पहने कोई भी वस्त्र, देखते हैं नग्न, वासना के पुजारी
इसीलिए तो घर से लेकर सड़क तक
कहीं भी नहीं है सुरक्षित नारी
आज फिर एक हुई है विदा
कल फिर आएगी दूसरी की बारी...................

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

उस पार से आती एक आवाज़

उस पार से आती एक आवाज़
रोज झकझोरती है मुझे
न जाने कितनी ताकत है उसमें
अंदर तक तोड़ती है मुझे
कोशिशें लाख करती हूँ मगर
यह पहेली नहीं सुलझती है
प्रश्‍नों की भरी महफिल में
मौन कर देती है यह मुझे
अचानक से अब यह आवाज़
जानी पहचानी लगने लगी है
ये तो मृग की नाभी में छुपी
कस्तूरी की तरह ही है
हाँ यह हमारी आत्मा की आवाज़ है
जो हमारे समीप होकर भी
कहीं दूर से ही सुनाई देती है
छिपी है हमारे हृदय में लेकिन
उस पार से आई लगती है
क्योंकि इस पर बहुत धुंध है
और अज्ञानता के गहन अंधेरे है
झूठ, छल और कपट के काले नाग
इसको चारों ओर से घेरे हैं
इन विषधरों का नाश करना होगा
तभी हमारा स्वयं से परिचय होगा
तब उस पार से आती यह आवाज़
परायी नहीं लगेगी
हमारे मन की निर्मलता उसे
हमें झकझोरने नहीं देगी


गुरुवार, 6 सितंबर 2012

ऐसे हैं शिक्षक हमारे

नाज़ुक उँगलियों में देकर कलम की ताकत

बढ़ा देते है वो हौंसले हमारे

शरीर के रोम-रोम में ज्ञान फूँक कर

मिटा देते हैं वो अंधकार सारे

निराशा में हैं वो उम्मीद का दिया

माटी को दें नित रूप नया

मस्तिष्क की खाली तख्ती पर उन्होंने

न जाने कितने ही अक्षर उभारे

जीवन की हर नई डगर पर

राह हरदम है हमें दिखाई

सुनकर कितनी ही अनकही बातें

हम सभी के दुख बिसारे

ऐसे हैं शिक्षक हमारे

जान से भी हमको प्यारे

रविवार, 26 अगस्त 2012

कालू भालू

एक था कालू भालू

था बड़ा ही चालू

शैतानी करता था

सबसे वो लड़ता था

तब जानवरों ने ठानी

उसे याद दिलाएँ नानी

ढूँढ रहे थे मौका

कब मिलके मारें चौका

जल्दी ही वो दिन आया

शिकारी ने जाल बिछाया

कालू फँस गया उसमें

कुछ नहीं था उसके वश में

उसने आवाज़ लगाई

कोई जान बचाओ भाई

चिंकू चूहा बोला

तुमने कब किसको छोड़ा

क्यों जान बचाऊँ तुम्हारी

नहीं तुमसे कोई यारी

मैं तो चला अपने रस्ते

तुम मरना हँसते-हँसते

कालू ने पकड़े कान

मेरे भाई बचाओ जान

मुझको है पछतावा

अब मान भी जाओ राजा

चिंकू थोड़ा मुस्काया

कालू के पास में आया

जाल को उसने कुतरा

टल गया सारा खतरा

कालू ने मन में ठानी

अब करूँ नहीं मनमानी

खाता हूँ कसम में अब से

मिलकर रहूँगा सबसे

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

दोस्ती का रिश्ता

खून से नहीं है जुड़ा

लेकिन खून से भी बड़ा

दोस्ती का रिश्ता ऐसा

जो है सबसे खरा

वक्त आने पर होती है

पहचान अपनों की

दोस्तों से ही तो है

उड़ान सपनों की

आज़ादी

आओ मनाएँ अपनी आज़ादी का जश्न

लेकिन पहले पूछो खुद से यह प्रश्न

क्या हम आज़ाद हैं?

अगर हैं , तो किससे हैं?

अगर नहीं, तो क्यूँ नहीं हैं?

तभी होगी सच की समझ

नज़र आएगा अग्निपथ

जान पाएँगे कि दिल्ली अभी दूर है

आज भी आज़ादी बहुत मज़बूर है

पहले अंग्रेजों के हाथ बँधी थी

आज भ्रष्ट तंत्र के पास दबी है

तब भी टुकड़ों में बँटी थी

आज भी टुकड़ों में बँटी है

परिवर्तन का बोझ

बदल गया है सब कुछ

न रहा कुछ पहले जैसा

समाज हुआ है भ्रष्ट

हाय ज़माना आया कैसा

परिवर्तन के बोझ तले हम सब दबे हैं ऐसे

सभ्यता संस्कार जैसे शब्द छूटे हैं बहुत पीछे

आज तो मॉर्डनिटी का बोलाबाला है

जो कहे सच उसका का मुँह काला है

हाय राम यह बदलाव है कैसा

बदल गया है सब कुछ

न रहा कुछ पहले जैसा

चोर उचक्कों को जनता वोट देती है

साँप निकल जाए तब लकीर पीटती है

वादों का झुनझुना नेता बजाते हैं

अपने इशारों पर जनता को नचाते हैं

बीती बातों पर अब पछतावा कैसा

बदल गया है सब कुछ

न रहा कुछ पहले जैसा

औरत की अस्मत घर में ही लूट लेते हैं

इसकी तोहमत भी उसी के सर मड़ते हैं

सरेआम लड़कियों को रुसवा किया जाता है

गर ना में हो जवाब, तेज़ाब छिड़का जाता है

बोलो कब तक चलता रहेगा ऐसा

बदल गया है सब कुछ

न रहा कुछ पहले जैसा

अमीरों ने तन ढकना छोड़ दिया है

गरीबों को कपड़ा ही कब मिला है

बुजुर्ग दूध की कीमत से घबराते हैं

बच्चे बीयर पीकर झूम जाते हैं

तौबा-तौबा यह दिन दिखाया कैसा

बदल गया है सब कुछ

न रहा कुछ पहले जैसा

इन आँखों में अब नहीं है हिम्मत

कुछ और देखने की

कांधे भी झुक गये हैं इस

परिवर्तन के बोझ तले ही

है प्रभु तुम ही करो कुछ चमत्कार

आकर उठाओ इस परिवर्तन का भार

गुरुवार, 12 जुलाई 2012


ख़्वाब क्यूँ

ए दिल
ख़्वाब क्यूँ देखते हो ऐसे
जो होते हैं हरदम झूठे से
ए दिल--------
तुम देखते हो, हर आँख में खुशी हो
तुम चाहते हो, हर लब पे हँसी हो
क्या देखा है तुमने कभी आसमा-ज़मी हो मिले
फिर बोलो तुम्ही ये ख़्वाब सच हो कैसे
ए दिल--------
है आरज़ू मेरी भी अमन हो चमन में
हो शांति वादियों में प्यार हो पवन में
लेकिन मैं जानती हूँ यहाँ अब नफ़रत ही पले
फिर बोलो तुम्ही ये ख़्वाब सच हो कैसे
ए दिल--------

शनिवार, 7 जुलाई 2012

कौन आएगा अव्वल ?

चिंकू-मीनू दोनों एक दिन
बैठे थे बड़े उदास
सोचें दिए हैं पेपर अच्छे
क्या दोनों होंगे पास
मम्मी बोली अंदर से
बात है कोई खास ?
गुम-सुम-गुम-सुम बैठे हो
तुम दोनों साथ-साथ
चिंकू-मीनू बोले मम्मी
डर है हमको लगता
मेहनत तो की थी हमने
रिजल्ट भी हो अब अच्छा
मम्मी बोली प्यारे बच्चों
जो मेहनत से नहीं घबराते
जीवन में ऐसे बच्चे ही
हरदम अव्वल आते

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

जय हो ! गणतंत्र हमारा

जनता का जनता के लिए
जनता के द्वारा
कहते हैं कि इसी भाव में निहित है
गणतंत्र हमारा
निर्माताओं ने तो बहुत सोच विचार कर
एक तंत्र बनाया
लेकिन भस्मासुरों के हाथ में
वरदान थमाया
जब चाहे तोड़-मरोड़कर
इस्तेमाल कर लेते हैं तंत्र
विरोध होने पर पकड़ा देते हैं
लोगों को यह मंत्र
जनता का जनता के लिए
और जनता के द्वारा
हम तो सेवक हैं आपके
पर तंत्र है तुम्हारा