रविवार, 23 अगस्त 2009

भक्ति के सैलाब में बहते गनपति

स्वागत से लेकर विदाई तक


गणेश
जी की पूजा इस संसार में कहीं भी सबसे पहले की जाती है। भगवान गणेश सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान् हैं. उनकी प्रसिद्धि इस बात से ही पता चलती है की उनके चित्र सबसे अधिक बनाये जाते हैं. हिन्दू पंचांग के अनुसार भगवान गणेश प्रत्येक महीने की चौथी तारीख को याद किये जाते हैं. किन्तु भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी कोसिद्धिविनायक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है और इस दिन गणेश उत्सव मनाते हैं. गणेश उत्सव दस दिन तक मनाया जाने वाला उत्सव है. इस उत्सव पर लोग गणेश मूर्ति को अपने घर लाते है और दस दिनों तक उसकी पूजा-अर्चना करते हैं. दस दिनों के बाद गणेश जी की यह मूर्ति धूम धाम से सामूहिक रूप से समुद्र में विसर्जित कर दी जाती है. चारों ओर से "गणपति बप्पा मोरिया " की आवाजें सुनाई देती है तथा लोग जोर-जोर से जयकारे लगाते हुए समुद्र तट तक जाते है.

सार्वजानिक गणेश उत्सव
गणेश उत्सव महाराष्ट्र में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। इसके पीछे भी एक कहानी है कि पहले यह उत्सव व्यक्तिगत रूप से मनाया जाता था। सन १८६४ में महाराष्ट्र के राजनेता बाल गंगाधर तिलक (लोकमान्य तिलक) जी ने सभी लोगों को आपस में जोड़ने के लिए इस उत्सव को सार्वजानिक गणेशोत्सव और जनता का गणेश उत्सव के रूप में मनाया। तभी से गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। इस उत्सव को सार्वजनिक ढंग से मनाने के पीछे लोकमान्य तिलक जी का उद्देश्य हिन्दू समुदाय को एकत्रित करना तथा स्वतंत्रता सेनानियों को आपस में मिलने का अवसर देना था क्योंकि ब्रिटिश शासन में राजनैतिक सभाओं आदि को प्रतिबंधित कर रखा था. आज यह उत्सव अन्य सभी उत्सवों की तरह मनाया जाता है. जगह-जगह मंडप सजा कर उनमें गणपति की मूर्ति रखी जाती है. रंगोली सजाई जाती है और विभिन्न पकवानों का भोग लगाया जाता है. इनमें मोदक, खीर, बेसन के लड्डू, अनरसे आदि हैं. मोदक भगवान गणेश को अतिप्रिय हैं. इस दिन व्रत रखा जाता है पर ज्यादातर लोग इसे बिना व्रत के ही मानते हैं.



गणेश उत्सव का एक रूप यह भी
प्रथम पूज्य गणेश, विघ्नहर्ता गणेश, एकदंत गणेश और भी न जाने क्या-क्या नाम हैं भगवान् गणेश जी के. यहाँ तक की भगवान गणेश जी की लोकप्रियता इतनी अधिक है की आपको कुंडल में गणेश, पेंडेंट में गणेश, ग्रीटिंग कार्ड में भी गणेश जी मिल जायेंगे. लेकिन क्या हमारी भक्ति भावना यहीं तक सीमित है? क्या किसी भी इश्वर के प्रति आस्था प्रकट करने का तरीका यही है? या फिर घर में प्रभु की मूर्ति स्थापित करना और अंत में धूमधाम से उसका विसर्जन कर देना , क्या यह हमारी सही मायनों में प्रभु भक्ति है? ऐसे कई सवाल उठते हैं, जब इन तीज-त्योहारों के बाद उसी प्रथम पूज्य प्रभु को मिटटी में धूमिल और बुलडोजर तले रौंदता हुआ पाते हैं. एकतरफ हम गणेश उत्सव के दौरान गणेश जी को घर ला उनका स्वागत करते हैं. धूमधाम से उत्सव मनाते हैं वहीँ विसर्जन के बाद गणेश जी की मूर्तियाँ समंदर के किनारे कूड़े की तरह पड़ी नजर आती हैं।






















यह सच है कि इस उत्सव से बहुत लोगों कि धार्मिक भावनाएं जुडी हैं. हजारों कि रोजी रोटी भी जुडी है. क्यूंकि इन दिनों गणेश जी कि मूर्तियों कि बहुत मांग होती है. लाखों रुपयों की मूर्तियाँ खरीदी बेचीं जाती हैं. लेकिन हम जब उन्ही मूर्तियों को समंदर के पानी में डुबो देते है तो वही लाखो करोडो रूपया मिटटी में मिल जाता है. मैं यहाँ ये नहीं कह रही कि हमें त्यौहार नहीं मनाना चाहिए बल्कि सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि इतनी विशाल मूर्तियों का निर्माण न हो जिन्हें समंदर भी न समां सके. क्योंकि वह मूर्तियाँ विसर्जन के अगले दिन समंदर के किनारे खंडित हो पड़ी हुई नजर आती हैं. जिन्हें वही भक्त लोग देख कर भी अनदेखा कर देते है जिन्होंने एक दिन पहले ही भक्ति में सराबोर होकर उनका विसर्जन किया होता है. मेरा मकसद यहाँ न तो किसी को उत्तेजित करना है न ही किसी को ठेस पहचाना है. सिर्फ लोगों का ध्यान इस और दिलाना है कि हमारी आस्था किसी बुलडोजर तले रौंदी न जाए.

अभिनय और सौन्दर्य का अनूठा संगम

रविवार सुबह की कॉफी का एक और नया अंक लेकर आज हम उपस्तिथ हुए हैं। वैसे तो मन था कि आपकी पसंद के रक्षा बंधन गीत और उनसे जुडी आपकी यादों को ही आज के अंक में संगृहीत करें पर पिछले सप्ताह हुई एक दुखद घटना ने हमें मजबूर किया कि हम शुरुआत करें उस दिवंगत अभिनेत्री की कुछ बातें आपके साथ बांटकर.फिल्म जगत में अपने अभिनय और सौन्दर्य का जादू बिखेर एक मुकाम बनाने वाली अभिनेत्री लीला नायडू को कौन नहीं जानता. उनका फिल्मी सफर बहुत लम्बा तो नहीं था लेकिन उनके अभिनय की धार को "गागर में सागर" की तरह सराहा गया. लीला नायडू ने सन १९५४ में फेमिना मिस इंडिया का खिताब जीता था और "वोग" मैग्जीन ने उन्हें विश्व की सर्वश्रेष्ठ दस सुन्दरियों में स्थान दिया था. आगे पढ़ें मेरी कलम से हिन्दयुग्म पर आवाज में...रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत

शनिवार, 22 अगस्त 2009

सफलता और शोहरत किसी उम्र की मोहताज नही होतीं

सफलता और शोहरत किसी उम्र की मोहताज नहीं होती। अगर हमारी मेहनत और प्रयास सच्चे व सही दिशा में हों तो व्यक्ति किसी भी उम्र में सफलता और शोहरत की बुलंदियों को छू सकता है. सोनू निगम एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने सफलता के कई पायदान पार किये हैं. उन्होंने अपने बहुमुखी व्यक्तित्व को प्रर्दशित किया है. गायन के साथ-साथ सोनू निगम ने अभिनय व माडलिंग भी की है. यद्यपि अभिनय में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली, किन्तु गायन के क्षेत्र में वह शिखर पर विराजित हैं. उन्होंने गायकी छोड़ी नहीं है. वो आज भी संगीतकारों की पहली पसंद हैं. उनकी आवाज में कशिश व गहराई है. वह कई बार गाने के मूड के हिसाब से अपनी आवाज में बदलाव भी लाते हैं जो उनके हरफनमौला गायक होने का परिचय देता है. अपनी पहली एल्बम 'तू' के जरिये वो युवा दिलों के सरताज बन गए थे. आगे पढिये मेरी कलम से हिन्दयुग्म पर आवाज में...रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत

रविवार, 16 अगस्त 2009

"है नाम ही काफी उनका और क्या कहें, कुछ लोग तआर्रुफ के मोहताज नहीं होते"

"है नाम ही काफी उनका और क्या कहें, कुछ लोग तआर्रुफ के मोहताज नहीं होते" गुलजार उन्ही चंद लोगों में से एक हैं जिन्हें किसी परिचय की जरुरत नहीं है। गुलज़ार एक ऐसा नाम है जो उत्कृष्ट और उम्दा साहित्य का पर्याय बन गया है. आज अगर कही भी गुलज़ार जी का नाम आता है लोगों को विश्वास होता है कि हमें कुछ बेहतरीन ही पढ़ने-सुनने को मिलेगा. आवाज हो या लेखन दोनों ही क्षेत्रों में गुलजार जी का कोई सानी नहीं. गुलजार लफ्जों को इस तरह बुन देते है कि वो आत्मा को छूते हैं. शायद इसीलिए वो बच्चों, युवाओं और बूढों में समान रूप से लोकप्रिय है. गुलज़ार जी का स्पर्श मात्र ही शब्दों में प्राण फूँक देता है और ऐसा लगता है जैसे शब्द किसी कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचने लगे है। आगे पढ़ें मेरी कलम से हिन्दयुग्म पर आवाज में..रविवार सुबह की कॉफी और दुर्लभ गीत

जो भरा नही है भावों से ,बहती जिसमें रसधार नहीं,वह हृदय नही है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नही

जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं वह हृदय नहीं है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नही,
साहित्य, कला और संगीत ऐसे तीन स्तम्भ हैं जो हमारे देश की आन, बान और शान का प्रतीक हैं। इन तीनों ही के योगदान ने देश को सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचाया है. इतिहास गवाह है कि साहित्य और संगीत के द्वारा हमारे साहित्यकारों ने देश के लोगों को जागरूक करने का काम किया है. चाहें गुलामी की जंजीरों से आजाद होने की प्रेरणा हो या फिर टुकडों में बँटे देश को जोड़ने का प्रयास, इन साहित्यकारों ने अपना योगदान बखूबी दिया है. इनकी कलम से निकले शब्दों ने पत्थर हृदयों में भी स्वाभिमान और देशप्रेम का जज़्बा पैदा कर दिया. कहते है कि "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुचे कवि". अर्थात कवियों की कल्पना से कोइ भी अछूता नहीं है आगे पढिये मेरी कलम से हिन्दयुग्म पर आवाज में ...रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

गोकुल की गलियों का ग्वाला

कृष्णपक्ष की अष्टमी के चंद्र की तरह एक पैर पर खड़े होकर, एक पैर टेढ़ा रखकर, शरीर को कमनीय मोड़ देकर इस मुरलीधर ने जिस दिन संसार में प्रथम बार प्राण फूंका, वह दिन इतिहास में अमर हो गया। बादलों की गड़गड़ाहट हो रही है, बिजली कड़कती है, मूसलधार वर्षा टूट पड़ रही है, ऐसे समय श्री कृष्ण का जन्म हुआ है। कहते हैं कि जब जीवन में अंधकार फैलता है, निराशा का वातावरण छा जाता है, आपत्ति की वर्षा टूट पड़ती है, दुःख-दैन्य के काले बादल धमकी देते हुए गड़गड़ाहट करते हैं, अनाचार चरम पर पहुँच जाता है तब कोइ एक अवतार अवतरित होता है. भगवान श्री कृष्ण ने समस्त दु:खों का नाश करने तथा पृथ्वी को संकट मुक्त करने के लिये जन्म लिया। यूँ तो भारत में अनंत अवतार हुए हैं और भारत में नररत्नों की परंपरा भी है। एक-एक गुण के लिए, एक-एक तत्व के लिए, एक-एक ध्येय के लिए कई जीवन इस देश में लोगों ने अर्पण किए हैं, ऐसे भारत देश के रत्नों की शोभा बढ़ाने वाले कौस्तुभमणि श्री कृष्ण! हैं. भगवान श्री कृष्ण में यशस्वी , विजयी योद्धा, धर्मसाम्राज्य के उत्पादक, मानव विकास की परंपरा का नैतिक मूल्य समझाने वाले उद्गाता, धर्म के महान प्रवचनकार, भक्तवत्सल और ज्ञानियों तथा जिज्ञासुओं की जिज्ञासा पूरी करने वाले जगद्गुरु आदि सभी गुण निहित हैं उनका व्यक्तित्व आकर्षक तथा प्रेरणा दायक है।
मोहरात्रि: श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनि बजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है ।
कथा: द्वापर युग में पृथ्वी पर राक्षसो के अत्याचार बढने लगे पृथ्वी गाय का रूप धारण कर अपनी कथा सुनाने के लिए तथा उदार के लिए ब्रह्याजी के पास गई। ब्रह्याजी सब देवताओ को साथ लेकर पृथ्वी को विष्णु के पास क्षीर सागर ले गए। उस समय भगवान विष्णु अन्नत शैया पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हो गई भगवान ने ब्रह्या एवं सब देवताओ को देखकर उनके आने का कारण पूछा तो पृथ्वी बोली-भगवान मैं पाप के बोझ से दबी जा रही हूँ। मेरा उद्धार किजिए। यह सुनकर विष्णु बोले - मैं ब्रज मण्डल में वासुदेव की पत्नी देवकी गर्भ से जन्म लूँगा। तुम सब देवतागण ब्रज भूमि में जाकर यादव वंश में अपना शरीर धारण कर लो। इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गए । इसके पश्चात् देवता ब्रज मण्डल में आकर यदुकुल में नन्द यशोदा तथा गोप गोपियो के रूप में पैदा हुए । द्वापर युग के अन्त में मथुरा में उग्रसेन राजा राज्य करता था। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था कंस ने उग्रसेन को बलपूर्वक सिंहासन से उतारकर जेल में डाल दिया और स्वंय राजा बन गया कंस की बहन देवकी का विवाह यादव कुल में वासुदेव के साथ निशिचत हो गया । जब कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ के साथ जा रहा था तो आकाशवाणी हुई कि ”हे कंस! जिस देवकी को तु बडे प्रेम से विदा करने कर रहा है उसका आँठवा पुत्र तेरा संहार करेगा। आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध से भरकर देवकी को मारने को तैयार हो गया। उसने सोचा- ने देवकी होगी न उसका पुत्र होगा । वासुदेव जी ने कंस को समझाया कि तुम्हे देवकी से तो कोई भय नही है देवकी की आठवी सन्तान में तुम्हे सौप दूँगा। तुम्हारे समझ मे जो आये उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना कंस ने वासुदेव जी की बात स्वीकार कर ली और वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द कर दिया । तत्काल नारदजी वहाँ पहुँचे और कंस से बोले कि यह कैसे पता चला कि आठवाँ गर्भ कौन सा होगा गिनती प्रथम से या अन्तिम गर्भ से शुरू होगा कंस ने नादरजी के परामर्श पर देवकी के गर्भ से उत्पन्न होने वाले समस्त बालको को मारने का निश्चय कर लिया । इस प्रकार एक-एक करके कंस ने देवकी के सात बालको को निर्दयता पूर्वक मार डाला । भाद्र पद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उनके जन्म लेते ही जेल ही कोठरी में प्रकाश फैल गया। वासुदेव देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा, एव पदमधारी चतुर्भुज भगवान ने अपना रूप प्रकट कर कहा,”अब मै बालक का रूप धारण करता हूँ तुम मुझे तत्काल गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा दो और उनकी अभी-अभी जन्मी कन्या को लाकर कंस को सौप दो । तत्काल वासुदेव जी की हथकडियाँ खुल गई । दरवाजे अपने आप खुल गये पहरेदार सो गये वासुदेव कृष्ण को सूप में रखकर गोकुल को चल दिए रास्ते में यमुना श्रीकृष्ण के चरणो को स्पर्श करने के लिए बढने लगी भगवान ने अपने पैर लटका दिए चरण छूने के बाद यमुना घट गई वासुदेव यमुना पार कर गोकुल में नन्द के यहाँ गये बालक कृष्ण को यशोदाजी की बगल मे सुंलाकर कन्या को लेकर वापस कंस के कारागार में आ गए। जेल के दरवाजे पूर्ववत् बन्द हो गये। वासुदेव जी के हाथो में हथकडियाँ पड गई, पहरेदारजाग गये कन्या के रोने पर कंस को खबर दी गई। कंस ने कारागार मे जाकर कन्या को लेकर पत्थर पर पटक कर मारना चाहा परन्तु वह कंस के हाथो से छूटकर आकाश में उड गई और देवी का रूप धारण का बोली ,”हे कंस! मुझे मारने से क्या लाभ? तेरा शत्रु तो गोकुल में पहुच चुका है। यह दृश्य देखकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया । कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे श्रीकृष्ण ने अपनी आलौलिक माया से सारे दैत्यो को मार डाला। बडे होने पर कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया । श्रीकृष्ण की पुण्य तिथि को तभी से जन्माष्टमी के रूप में सारे देश में बडे हर्षोल्लास से मनाया जाता है ।
पुराणानुसार: भविष्यपुराणके जन्माष्टमीव्रत-माहात्म्यमें यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराजके अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं। दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोगों द्वारा जन्माष्टमी का व्रत करने से कल्याण होता है. समस्त कष्टों का नाश होता है।
कृष्णमय हो जाता है समूचा ब्रज: कृष्ण के जन्म पर ब्रज भूमि की बात न हो तो सारी बातें अधूरी हैं. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बृज का हर घर मंदिर बन जाता है और बृज का कोना-कोना कृष्णमय हो उठता है। कृष्ण के प्रेम में रंगे बृजवासी इस अवसर पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं। सारा विश्व मनमोहन की अनुपम छवि को निहारने के लिए लालायित रहता है। बृज के सभी मंदिरों में जन्माष्टमी, बहुत ही धूमधाम से मनायी जाती है.वृन्दावन के राधारमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर एवं शाहजी मंदिर में जन्माष्टमी दिन में ही मनाई जाती है। वृन्दावन के लोग इन मंदिरों में से किसी का भी चरणामृत ग्रहण कर जन्माष्टमी व्रत के नियम का पालन करते हैं।
कृष्ण में सभी गुणों का समावेश मिलता है. कृष्ण का अवतार सभी दृष्टि से पूर्णावतार हैं। उनके जीवन में कहीं भी उंगली उठाने, न्यूनता जैसा स्थान नहीं है। एक भी स्थान ऐसा नहीं है कि जहां कमी महसूस हो। आध्यात्मिक, नैतिक या दूसरी किसी भी दृष्टि से देखेंगे तो मालूम होगा कि कृष्ण जैसा समाज उद्धारक दूसरा कोई पैदा हुआ ही नहीं है। कृष्ण की तुलना में खड़ा रह सके ऐसा राजनीतिज्ञ इस जगत्‌ में कहीं भी देखने को नहीं मिलता।अध्यात्म तो भगवान श्री कृष्ण की वैशिष्ठ्य है! कृष्ण ने निरपेक्ष रहकर रात-दिन संस्कृति के लिए कार्य किया। रात-दिन राजनीति में लीन होने वाला और कोई भी निरपेक्ष रह ही नहीं सकता है। केवल कृष्ण ही एक अपवाद हैं .उन्होंने धर्म और तत्वज्ञान के आधार पर राजसत्ता का नियंत्रण बखूबी किया तथा समाज को संदेश दिया कि अधर्मी चाहे सगा रिश्तेदार ही क्यों ना हो, उसका नाश करना हमारा कर्तव्य है. लोभी और धूर्त हमारे स्वजन कैसे हो सकते हैं. जो भी धर्म और न्याय के खिलाफ हो उसका साथ छोड़कर धर्म के मार्ग पर चलना ही समझदारी है और हमारा कर्तव्य भी है. कृष्ण की यह विचारधारा आज भी "भगवत गीता" के रूप में एक धरोहर है. भगवत गीता में निहित सद्ग्यान हमें कदम-कदम पर राह दिखाता है और अवनति के मार्ग से हटा उन्नति की और अग्रसर करता है.

रविवार, 9 अगस्त 2009

भाषावाद कहाँ तक जायज

यह सच है कि जिस तरह से मातृभूमि सबको प्रिय है उसी तरह मातृभाषा के प्रति भी लगाव होना लाज़मी है.लेकिन हर चीज की एक सीमा होनी चाहिये.’अति सर्वत्र वर्जयेत’ यानि कहीं पर भी अति नहीं होनी चाहिये. भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है जहाँ विभिन्न धर्म-जातियाँ तथा भाषायें पायी जाती हैं. यहाँ के लोग भी किसी सीमा में बँधे हुए नहीं हैं. सभी प्रान्तों के लोग अन्य प्रान्तों में बसे हुए हैं. ऐसे में अगर कोइ प्रान्त यह फैसला करे कि हमारे यहाँ सिर्फ हमारे ही प्रान्त की भाषा में स्कूलों मे शिक्षा दी जायेगी तो सरासर गलत होगा. शिक्षा पर सभी का अधिकार है और ऐसे में सिर्फ भाषा का दवाब बनाकर आप लोगों को शिक्षा से वंचित नहीं कर सकते.
हाल ही में कर्नाटक सरकार ने प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम कन्नड़ भाषा होना अनिवार्य किया है इसे कोर्ट ने भी गलत ठहराया है. क्या अपनी भाषा के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने का सिर्फ यही तरीका है. जो लोग अन्य प्रान्तों से स्थानान्तरण कर आ बसे हैं वह केवल कन्नड़ भाषा माध्यम होने से अपने बच्चों को बीच सत्र में कहाँ दाखिला दिलायेगें. पूरे देश में या विदेशों में एक ही भाषा तो नहीं चलती है. सभी जगह अंग्रेजी एक माध्यम का कार्य करती है. अगर कोइ व्यक्ति सिर्फ कन्नड़, मलयालम, उर्दू या हिन्दी भाषा तक सीमित रह जायेगा तो वह अपने प्रान्त से निकलकर अन्य प्रान्तों में कैसे काम करेगा.
पिछले वर्ष केरल सरकार द्वारा मलयालम भाषा शिक्षा का माध्यम बनायी गयी उसका नतीजा यह निकला कि इस वर्ष केरल के प्राइमरी विद्यालयों में २.५ लाख दाखिले कम हुए. ज्यादातर माता-पिताओं ने अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने के लिये अन्य प्रान्तों का रुख किया. शिक्षा का माध्यम चुनना शिक्षा प्राप्त करने वाले का अधिकार होना चाहिये न कि सरकार का. ऐसा फैसला किस काम का जिससे बच्चों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाये.
भाषा के प्रचार-प्रसार के और भी तरीके हैं. अगर सरकार अपने प्रान्त की भाषा को बढा़वा ही देना चाहती है तो वह उस भाषा को अनिवार्य विषय के तौर पर रख सकती है. इसके अलावा भाषा से जुडी साहित्यिक प्रतियोगिताओं,सेमिनार आदि का आयोजन भी इस दिशा मे अच्छा प्रयास होगा. इससे साहित्य को बढ़ावा मिलने के साथ-साथ लोगों में भाषा के प्रति लगाव भी बढ़ेगा.

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

एक प्यारा सा बंधन



संस्कृतियों की चर्चा की जाये तो भारतीय संस्कृति लाजवाब है. इस एक संस्कृति में ही ना जाने कितनी संस्कृतियों का समावेश मिलता है. जितने धर्म उतने ही तीज त्यौहार और हर त्यौहार का अलग ही महत्व है. होली-दीवाली हो या फिर दशहरा, जन्माष्टमी हो या रक्षाबंधन, सभी त्यौहार भारतीय संस्कृति की छाप दिखाते हैं. वैसे तो सभी त्यौहार खास हैं लेकिन रक्षाबंधन की बात ही निराली है. रक्षाबंधन एक ऐसा त्यौहार है जो अपनों को ही नहीं बल्कि परायों को भी आपसी बंधन में बाँध देता है. एक ऐसा बंधन जो प्यार, विश्वास और रक्षा के सूत्र से बँधा होता है. एक ऐसा रिश्ता जिसमें रक्षा का वचन होता है और साथ ही साथ लम्बी उम्र की कामनायें होती हैं.
रक्षाबंधन एक भारतीय त्यौहार है. रक्षाबंधन पर बहनें अपने भाईयों की कलाई पर धागा बाँधती हैं. यह धागा रक्षा, भाईचारे, शुभकामनाओं तथा लम्बी उम्र का प्रतीक होता है. यह शुभकामनाएं अपने लिये ही नहीं होती बल्कि उसके लिये भी होती है जिसकी कलाई पर धागा बाँधा जाता है. रक्षा का अर्थ है सुरक्षा यानि एक ऐसा रिश्ता जिसमें बुराईयों तथा विपत्तियों से सुरक्षा का भाव छिपा है. यह भाव हमें शारीरिक सुरक्षा के साथ मानसिक सुरक्षा का भी आभास देता है.
रक्षाबंधन का त्यौहार पूर्णमासी के दिन मनाया जाता है इसलिए इस दिन को राखी पूर्णिमा भी कहते हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. यह त्यौहार उत्तर तथा पश्चिम क्षेत्रों में राखी पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है तो पश्चिमी घाटों में इसे नारियल पूर्णिमा कहते हैं. यहाँ नारियल को पूर्ण चाँद का प्रतीक माना जाता है. दक्षिणी भाग में राखी का त्यौहार अवनि अट्टम तथा मध्य भारत में कजरी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. नाम चाहे जो भी हो पर भाव एक ही है भाईचारा, प्रेम और सौहार्द्र.
रक्षाबंधन त्यौहार को मनाने के पीछे कई किवदन्तियाँ हैं. आज यह त्यौहार भई-बहिन के बीच मनाया जाता है लेकिन कहते हैं कि जब देवासुर संग्राम हुआ था उस दौरान दैत्यराज ने स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था और इन्द्र ने देव गुरु वृहस्पति की शरण ली तब उन्होंने एक रक्षासूत्र तैयार कर इन्द्र की पत्नि देवी शचि को इन्द्र की कलाई पर बाँधने का निर्देश दिया जिसके फलस्वरुप केवल इन्द्र की रक्षा हुयी अपितु युद्ध में विजय की भी प्रप्ति हुई. तभी से यह रक्षा सूत्र बाँधने का प्रचलन है.
रक्षाबंधन का त्यौहार इतने तक ही सीमित नहीं है. एक अन्य कहानी के अनुसार कहा जाता है कि भगवान यमराज की यमुना नाम की एक बहिन थी. वह प्रत्येक श्रावण पूर्णिमा को अपने भाई यमराज की कलाई पर पवित्र धागा बाँधती थी. तभी से यह त्यौहार बहनों द्वारा भाईयों की कलाई पर राखी बाँधने का त्यौहार बन गया. इस दिन बहने भाईयों की कलाई पर राखी बाँध कर उनके लम्बे तथा स्वस्थ जीवन की कामनायें करती हैं. इसके बदले में भाई उन्हें रक्षा का वचन देते हैं.
इसी तरह यह भी कहा जाता है कि बालि भगवान विष्णु का परम भक्त था. इस बात से इन्द्र को अपने सिंहासन की चिंता रहती थी. इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु से सहायता माँगने पर भगवान विष्णु ने बालि को पृथ्वी के नीचे पाताल में फेंक दिया. जब बालि ने प्रभु से विनती की तब प्रभु ने बालि को उसके राज्य की रक्षा करने का वचन दिया और भगवान विष्णु वैकुण्ठ छोड़ बालि के राज्य की रक्षा करने लगे.तब लक्ष्मी जी एक गरीब ब्राह्मणी का रुप धारण कर बालि के पास गयीं. उन्होंने बालि को भाई मान कर उसकी कलाई पर राखी बाँधी. उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी. जब बालि ने लक्ष्मी जी से उनकी इच्छा पूछी तो लक्ष्मी जी अपने असली रूप में आयीं और बालि से कहा कि मै यहाँ इसलिए आयी हूँ क्योंकि प्रभु विष्णु यहाँ हैं अगर आप प्रभु विष्णु को वैकुण्ठ भेज दें तो अचछा होगा. तब बालि ने अपना भात्र धर्म निभाते हुए उसी क्षण प्रभु से वैकुण्ठ जाने प्रार्थना की.
रक्षाबंधन से कई एतिहासिक कहानियाँ भी जुड़ी हैं. इनमें से अपने पति एलैक्जेन्डर की रक्षा के लिये एलैक्जेन्डर की पत्नि द्वारा उनके शत्रु पोरस को राखी बाँधने तथा चित्तौड़ की राजपूत रानी द्वारा अपनी रक्षा के लिये मुगलशासक हुमायुँ को राखी बाँधने की कहानियाँ प्रचलित हैं. भारत के प्रसिद्ध कवि रविन्द्रनाथ टैगौर ने राखी का त्यौहार मुख्य रुप से विभिन्न जाति-धर्मों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देने के लिये प्रयुक्त किया था.
आज राखी का त्यौहार सगे भाई-बहनों के संबंध से भी बढ़कर है. आजकल महिलायें अपने भाईयों की कलाईयों पर भी राखी बाँधती हैं और उन पुरुषों की कलाईयों पर भी जिनके बहिने नहीं हैं. राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री की कलाई पर भी राखी बाँधी जाती है तथा देश के सैनिकों की कलाई पर भी. इस तरह राखी का त्यौहार अब एक सामाजिक त्यौहार बन गया है जो पूरे देश में भाईचारे और प्यार का संदेश देता है..