रविवार, 23 अगस्त 2009

भक्ति के सैलाब में बहते गनपति

स्वागत से लेकर विदाई तक


गणेश
जी की पूजा इस संसार में कहीं भी सबसे पहले की जाती है। भगवान गणेश सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान् हैं. उनकी प्रसिद्धि इस बात से ही पता चलती है की उनके चित्र सबसे अधिक बनाये जाते हैं. हिन्दू पंचांग के अनुसार भगवान गणेश प्रत्येक महीने की चौथी तारीख को याद किये जाते हैं. किन्तु भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी कोसिद्धिविनायक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है और इस दिन गणेश उत्सव मनाते हैं. गणेश उत्सव दस दिन तक मनाया जाने वाला उत्सव है. इस उत्सव पर लोग गणेश मूर्ति को अपने घर लाते है और दस दिनों तक उसकी पूजा-अर्चना करते हैं. दस दिनों के बाद गणेश जी की यह मूर्ति धूम धाम से सामूहिक रूप से समुद्र में विसर्जित कर दी जाती है. चारों ओर से "गणपति बप्पा मोरिया " की आवाजें सुनाई देती है तथा लोग जोर-जोर से जयकारे लगाते हुए समुद्र तट तक जाते है.

सार्वजानिक गणेश उत्सव
गणेश उत्सव महाराष्ट्र में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। इसके पीछे भी एक कहानी है कि पहले यह उत्सव व्यक्तिगत रूप से मनाया जाता था। सन १८६४ में महाराष्ट्र के राजनेता बाल गंगाधर तिलक (लोकमान्य तिलक) जी ने सभी लोगों को आपस में जोड़ने के लिए इस उत्सव को सार्वजानिक गणेशोत्सव और जनता का गणेश उत्सव के रूप में मनाया। तभी से गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। इस उत्सव को सार्वजनिक ढंग से मनाने के पीछे लोकमान्य तिलक जी का उद्देश्य हिन्दू समुदाय को एकत्रित करना तथा स्वतंत्रता सेनानियों को आपस में मिलने का अवसर देना था क्योंकि ब्रिटिश शासन में राजनैतिक सभाओं आदि को प्रतिबंधित कर रखा था. आज यह उत्सव अन्य सभी उत्सवों की तरह मनाया जाता है. जगह-जगह मंडप सजा कर उनमें गणपति की मूर्ति रखी जाती है. रंगोली सजाई जाती है और विभिन्न पकवानों का भोग लगाया जाता है. इनमें मोदक, खीर, बेसन के लड्डू, अनरसे आदि हैं. मोदक भगवान गणेश को अतिप्रिय हैं. इस दिन व्रत रखा जाता है पर ज्यादातर लोग इसे बिना व्रत के ही मानते हैं.



गणेश उत्सव का एक रूप यह भी
प्रथम पूज्य गणेश, विघ्नहर्ता गणेश, एकदंत गणेश और भी न जाने क्या-क्या नाम हैं भगवान् गणेश जी के. यहाँ तक की भगवान गणेश जी की लोकप्रियता इतनी अधिक है की आपको कुंडल में गणेश, पेंडेंट में गणेश, ग्रीटिंग कार्ड में भी गणेश जी मिल जायेंगे. लेकिन क्या हमारी भक्ति भावना यहीं तक सीमित है? क्या किसी भी इश्वर के प्रति आस्था प्रकट करने का तरीका यही है? या फिर घर में प्रभु की मूर्ति स्थापित करना और अंत में धूमधाम से उसका विसर्जन कर देना , क्या यह हमारी सही मायनों में प्रभु भक्ति है? ऐसे कई सवाल उठते हैं, जब इन तीज-त्योहारों के बाद उसी प्रथम पूज्य प्रभु को मिटटी में धूमिल और बुलडोजर तले रौंदता हुआ पाते हैं. एकतरफ हम गणेश उत्सव के दौरान गणेश जी को घर ला उनका स्वागत करते हैं. धूमधाम से उत्सव मनाते हैं वहीँ विसर्जन के बाद गणेश जी की मूर्तियाँ समंदर के किनारे कूड़े की तरह पड़ी नजर आती हैं।






















यह सच है कि इस उत्सव से बहुत लोगों कि धार्मिक भावनाएं जुडी हैं. हजारों कि रोजी रोटी भी जुडी है. क्यूंकि इन दिनों गणेश जी कि मूर्तियों कि बहुत मांग होती है. लाखों रुपयों की मूर्तियाँ खरीदी बेचीं जाती हैं. लेकिन हम जब उन्ही मूर्तियों को समंदर के पानी में डुबो देते है तो वही लाखो करोडो रूपया मिटटी में मिल जाता है. मैं यहाँ ये नहीं कह रही कि हमें त्यौहार नहीं मनाना चाहिए बल्कि सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ कि इतनी विशाल मूर्तियों का निर्माण न हो जिन्हें समंदर भी न समां सके. क्योंकि वह मूर्तियाँ विसर्जन के अगले दिन समंदर के किनारे खंडित हो पड़ी हुई नजर आती हैं. जिन्हें वही भक्त लोग देख कर भी अनदेखा कर देते है जिन्होंने एक दिन पहले ही भक्ति में सराबोर होकर उनका विसर्जन किया होता है. मेरा मकसद यहाँ न तो किसी को उत्तेजित करना है न ही किसी को ठेस पहचाना है. सिर्फ लोगों का ध्यान इस और दिलाना है कि हमारी आस्था किसी बुलडोजर तले रौंदी न जाए.

3 टिप्‍पणियां: