कहते हैं कि पृथ्वी का ही नहीं, हमारे शरीर का भी आधे से ज्यादा हिस्सा जल से भरा हुआ है. इस तरह से देखा जाये तो जल हमारे जीवन का बहुत ही महत्वपूर्णं हिस्सा है जिसकी कमी हमारे जीवन को खतरे में डाल सकती है. ताजे समीकरणों से पता चला है कि आने वाले समय में पानी की भारी किल्लत होने वाली है.एक तो भू जल स्तर पहले ही कम हो चुका है, ऊपर से मानसून का भी कुछ अता-पता नहीं. हाल ही में मौसम विभाग ने आशंका जतायी है कि जो मानसून १५ जून तक आना था वो अभी दूर तक आता दिखायी नहीं दे रहा है..यूपी, बिहार आदि राज्यों में भारी सूखे व अकाल का संकट नज़र आ रहा है. आँकडों से यह भी पता चल रहा है नदियों तथा बाँधों में भी जलस्तर गिर गया है.
अगर देखा जाये तो यह सब हमारी ही करनी का फल है. जिस तरह तेजी से वृक्षों का कटान हुआ है उसी के चलते ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ना, मौसम में बदलाव आदि समस्याऐं खड़ी हुई हैं और नतीजन पानी की किल्लत बढ़ी है. पानी की बचत के लिये तरह-तरह के प्रचार किये जाते हैं पर हम में से कितने ऐसे हैं जो सही मायनों में पानी की बचत करते हैं. हमें तो सिर्फ अपने से मतलब है . हमारा काम हो जाये बस, बाकी किसी को कुछ मिले ना मिले हमें इससे क्या.
दिशा जिन्दगी की, दिशा बन्दगी की, दिशा सपनों की, दिशा अपनों की, दिशा विचारों की, दिशा आचारों की, दिशा मंजिल को पाने की, दिशा बस चलते जाने की....
शनिवार, 27 जून 2009
शुक्रवार, 26 जून 2009
विद्यालय कोइ पिकनिक स्पॉट नहीं
संस्कृत में एक श्लोक है कि"सुखार्थिनों कुतो: विद्या:,विद्यार्थिनों कुतो: सुख:"अर्थात जो सुख चाहता है उसे विद्या प्राप्त नहीं होती और जो विद्या चाहता है उसे सुख नही मिलता.यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्यार्थियों को कठिन परिश्रम करना पड़ता है.विद्याध्ययन के समय उन्हें अपने सभी सुखों का त्याग करना होता है तभी वह सही मायनो में बुद्धिमान बनते हैं इसके विपरीत जो सुखों में लिप्त रहते हैं उन्हें विद्या मिलना न मिलना एक समान ही होता है यानि कई बार डिग्रियाँ होते हुए भी उनमें जानकारी का अभाव होता है.
मैंने यह संदर्भ यहाँ इसलिए दिया है क्योंकि मैं यह बताना चाहती हूँ कि एक विद्यार्थी के लिये उसकी शिक्षा ही महत्वपूर्ण होती है.शिक्षा ही उसके जीवन का आधार है और विद्यालय वह प्रांगण है जहाँ उसके जीवन की नींव रखी जाती है.तो आप ही सोचिए जो स्थान आपके जीवन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्या वहाँ अनुशासन का होना जरूरी नहीं है ?
आज यूनिफार्म, मोबाइल आदि सभी लोगों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं. काफी तर्क-वितर्क भी हुआ है और जारी है. मैं यहाँ यह कहना चाहती हूँ कि हर स्थान की एक गरिमा होती है. हम उसी के अनुसार वेशभूषा धारण करते हैं व आचरण करते हैं. फिर विद्यालय तो शिक्षा का मंदिर है वो कोइ पिकनिक स्पॉट तो नही जहाँ हम मनोरंजन के लिये जाते हैं. विद्यालय में बिताया हुआ हर एक पल आपकी जिन्दगी के मायने तय करता है.
प्राचीन काल में गुरुकुल परम्परा होती थी. वो इसलिये ताकि विद्यार्थी अनुशासन में रहना सीखे साथ ही ऐसे माहौल से दूर रहे जो उन्हें भ्रमित करता हो. गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी एकाग्रचित होकर विद्याध्ययन करते थे. लेकिन आज आधुनिक युग है जहाँ सुख सुविधाओं के हजार साधन हैं. ये सभी साधन एक और हमारी सहायता करते हैं वहीं दूसरी और हमें भटकाते भी हैं. जैसेकि--आपने अपने घर में पूजा रखी है और पंडित जी पूजा करा रहे हैं लेकिन बीच-बीच में उनका मोबाइल बज रहा है. जाहिर है इससे सभी की एकाग्रता में व्यवधान पड़ेगा और आपको पंडित जी पर क्रोध भी आयेगा. ठीक इसी तरह कक्षा में बार-बार मोबाइल बजने पर व्यवधान पड़ता है. और जो पडा़ई का माहौल बना होता है वो टूट जाता है.
रही बात यूनिफार्म की तो इस विषय में सिर्फ इतना कहना चाहूँगी कि अगर विद्यालयों में यूनिफार्म होती है तो वो विद्यालय तथा विद्यार्थी दोनों की पहचान होती है. जैसे कि अगर हम कहीं पार्टी में जा रहे हैं तो उसी तरह के चमक धमक वाले कपड़े पहनते हैं उसी तरह यूनिफार्म होने से लगता है कि हम विद्यालय जा रहे हैं. लेकिन यह बात उचित नही कि केवल गर्ल्स कालेजों में यूनिफार्म होनी चाहिए. यहाँ पर बात सिर्फ विद्यालयों की होनी चाहिए चाहे वो गर्ल्स हो या बॉयज कालेज. निजी जिन्दगी में कौन क्या पहनता है या पहनती है यह सबकी अपनी मर्जी और हक़ है कि वह अपने हिसाब से चीजों को तय करे.
अंत में सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगी कि हमारा व्यक्तित्व व आचरण ही हमारी पहचान होता है पहनावा नहीं. हाँ यह सच है कि आजकल के दिखावे के जमाने में पहनावे पर अधिक ध्यान दिया जाता है लेकिन अंत में आपके काम ,आपकी शिक्षा और आपके द्वारा किये गये प्रयासों से ही सिद्ध होते हैं.
मैंने यह संदर्भ यहाँ इसलिए दिया है क्योंकि मैं यह बताना चाहती हूँ कि एक विद्यार्थी के लिये उसकी शिक्षा ही महत्वपूर्ण होती है.शिक्षा ही उसके जीवन का आधार है और विद्यालय वह प्रांगण है जहाँ उसके जीवन की नींव रखी जाती है.तो आप ही सोचिए जो स्थान आपके जीवन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्या वहाँ अनुशासन का होना जरूरी नहीं है ?
आज यूनिफार्म, मोबाइल आदि सभी लोगों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं. काफी तर्क-वितर्क भी हुआ है और जारी है. मैं यहाँ यह कहना चाहती हूँ कि हर स्थान की एक गरिमा होती है. हम उसी के अनुसार वेशभूषा धारण करते हैं व आचरण करते हैं. फिर विद्यालय तो शिक्षा का मंदिर है वो कोइ पिकनिक स्पॉट तो नही जहाँ हम मनोरंजन के लिये जाते हैं. विद्यालय में बिताया हुआ हर एक पल आपकी जिन्दगी के मायने तय करता है.
प्राचीन काल में गुरुकुल परम्परा होती थी. वो इसलिये ताकि विद्यार्थी अनुशासन में रहना सीखे साथ ही ऐसे माहौल से दूर रहे जो उन्हें भ्रमित करता हो. गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी एकाग्रचित होकर विद्याध्ययन करते थे. लेकिन आज आधुनिक युग है जहाँ सुख सुविधाओं के हजार साधन हैं. ये सभी साधन एक और हमारी सहायता करते हैं वहीं दूसरी और हमें भटकाते भी हैं. जैसेकि--आपने अपने घर में पूजा रखी है और पंडित जी पूजा करा रहे हैं लेकिन बीच-बीच में उनका मोबाइल बज रहा है. जाहिर है इससे सभी की एकाग्रता में व्यवधान पड़ेगा और आपको पंडित जी पर क्रोध भी आयेगा. ठीक इसी तरह कक्षा में बार-बार मोबाइल बजने पर व्यवधान पड़ता है. और जो पडा़ई का माहौल बना होता है वो टूट जाता है.
रही बात यूनिफार्म की तो इस विषय में सिर्फ इतना कहना चाहूँगी कि अगर विद्यालयों में यूनिफार्म होती है तो वो विद्यालय तथा विद्यार्थी दोनों की पहचान होती है. जैसे कि अगर हम कहीं पार्टी में जा रहे हैं तो उसी तरह के चमक धमक वाले कपड़े पहनते हैं उसी तरह यूनिफार्म होने से लगता है कि हम विद्यालय जा रहे हैं. लेकिन यह बात उचित नही कि केवल गर्ल्स कालेजों में यूनिफार्म होनी चाहिए. यहाँ पर बात सिर्फ विद्यालयों की होनी चाहिए चाहे वो गर्ल्स हो या बॉयज कालेज. निजी जिन्दगी में कौन क्या पहनता है या पहनती है यह सबकी अपनी मर्जी और हक़ है कि वह अपने हिसाब से चीजों को तय करे.
अंत में सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगी कि हमारा व्यक्तित्व व आचरण ही हमारी पहचान होता है पहनावा नहीं. हाँ यह सच है कि आजकल के दिखावे के जमाने में पहनावे पर अधिक ध्यान दिया जाता है लेकिन अंत में आपके काम ,आपकी शिक्षा और आपके द्वारा किये गये प्रयासों से ही सिद्ध होते हैं.
बुधवार, 24 जून 2009
प्यासी धरती करे पुकार
जिन्दगियों को निगलते बोरवेल और गढ्ढे
अगर साहित्यिक बात करें तो कहावत है कि"जो दूसरों के लिये गढ्ढा खोदता है वो उसमें खुद गिर जाता है" लेकिन ये कोइ साहित्यिक बात नही वरन असल जिन्दगी की बात है जहाँ गढ्ढा खोदता कोइ और है तथा उसमें गिरने वाला कोइ और होता है। जी हाँ मैं बात कर रही हूँ उन खुले हुए बोरवेल, गढ्ढों तथा नालों की ,जो ना जाने कितनी ही जाने ले चुके हैं.हम अक्सर ही अख़बार तथा चैनलों में किसी ना किसी बच्चे की इन खुले बोरवेल या गढ्ढों में गिरने से मौत की ख़बर पढ़ते-सुनते हैं. हाल ही में ऐसे कई ताजा मामले सामने आये है जिनमें कई बच्चों की मौत हो गयी है. हर बार वही ढूंढने का तथा मुआवजा देने का तमाशा होता है. लेकिन क्या मुआवजा देना इन घटनाओं का हल है ? क्यों हर बार किसी के गिरने का इंतजार होता है ? क्यों हर बार सेना का समय बर्बाद किया जाता है? क्या सेना का काम गढ्ढे में गिरे लोगों को निकालने का ही रह गया है ? ऐसे ही न जाने कितने ही प्रश्न हर बार खड़े होते है, लेकिन इनका उत्तर ना कभी खोजा गया है और ना ही खोजा जाता है . बस इंतजार होता है तो सिर्फ एक और घटना के घटित होने का.
मंगलवार, 23 जून 2009
बाग़-ऐ- बाहु
हिंदुस्तान का नक्श कुछ ऐसा है कि,कहीं भी जाओ खूबसूरती मिल ही जाती है.सच में हमारा भारतवर्ष खूबसूरत इबारतों और इमारतों से भरा हुआ है. चाहे ताजमहल हो या फिर कुतुबमीनार,लालकिला हो या फतहपुरसींकरी का बुलंद दरवाजा,देश के कोने-कोने में खूबसूरत और मनोरंजक स्थलों की कमी नही है. इन्हीं मंजरों के बीच मैं जि़क्र करने जा रही हूँ जम्मू स्थित बाग-ए-बाहु (बाहु का किला) का ,जो अपनी खूबसूरती से शहर के साथ-साथ ,आने-जाने वाले पर्यटकों को भी लुभाता है.
बाहु का किला जम्मू की सबसे पुरानी इमारत है.यह शहर के मध्य भाग से ५ किलोमीटर दूर तवी नदी के बांये किनारे स्थित है. कहते है कि यह किला ३००० वर्ष पूर्व राजा बाहूलोचन ने बनवाया था. लेकिन बाद में डोंगरा शासकों ने इसका नवनिर्माण तथा विस्तार किया. खूबसूरत झरनों,हरे-भरे बाग तथा फूलों से भरे हुए इस किले की शोभा देखते ही बनती है.ऐसा लगता है जैसे कि इससे खूबसूरत जगह पहले कहीं ना देखी हो.बाहु के किले को महाकाली के मंदिर के नाम से जाना जाता है. यह मंदिर किले के अंदर ही है तथा भावे वाली माता के नाम से प्रसिद्ध है. सन १८२२ में महाराजा गुलाबसिंह के राजा बनने के तुरंत बाद बनाया गया था. इस मंदिर की महत्ता वैष्णो देवी मंदिर के बाद दूसरे नंबर पर है.बल्कि यह काली माता का मंदिर भारत के प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है
किले के अंदर दूर तक फ़ैला हुआ खूबसूरत बाग है इसे ही लोग बाग-ए-बाहु नाम से जानते है.इस बाग कि संरचना और प्राकृतिक सुंदरता इतनी अनोखी है कि मन मयूर नृत्य करने लगता है.तरह-तरह के फव्वारे, सीढ़ीनुमा संरचना इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है.प्राकृतिक सुंदरता से ओत-प्रोत यहां का माहौल आपको मुग्ध कर देता है और यहां से जाने का मन ही नही करता. यहां का जादुई वातावरण हजारों लोगों को आकर्षित करता है. इसलिये यह एक पिकनिक स्पाट भी बन गया है.आप चाहें पिकनिक के लिये आयें या फिर एक बार देखने के लिये, इस बाग की खूबसूरती से आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.
बाहु का किला जम्मू की सबसे पुरानी इमारत है.यह शहर के मध्य भाग से ५ किलोमीटर दूर तवी नदी के बांये किनारे स्थित है. कहते है कि यह किला ३००० वर्ष पूर्व राजा बाहूलोचन ने बनवाया था. लेकिन बाद में डोंगरा शासकों ने इसका नवनिर्माण तथा विस्तार किया. खूबसूरत झरनों,हरे-भरे बाग तथा फूलों से भरे हुए इस किले की शोभा देखते ही बनती है.ऐसा लगता है जैसे कि इससे खूबसूरत जगह पहले कहीं ना देखी हो.बाहु के किले को महाकाली के मंदिर के नाम से जाना जाता है. यह मंदिर किले के अंदर ही है तथा भावे वाली माता के नाम से प्रसिद्ध है. सन १८२२ में महाराजा गुलाबसिंह के राजा बनने के तुरंत बाद बनाया गया था. इस मंदिर की महत्ता वैष्णो देवी मंदिर के बाद दूसरे नंबर पर है.बल्कि यह काली माता का मंदिर भारत के प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है
किले के अंदर दूर तक फ़ैला हुआ खूबसूरत बाग है इसे ही लोग बाग-ए-बाहु नाम से जानते है.इस बाग कि संरचना और प्राकृतिक सुंदरता इतनी अनोखी है कि मन मयूर नृत्य करने लगता है.तरह-तरह के फव्वारे, सीढ़ीनुमा संरचना इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है.प्राकृतिक सुंदरता से ओत-प्रोत यहां का माहौल आपको मुग्ध कर देता है और यहां से जाने का मन ही नही करता. यहां का जादुई वातावरण हजारों लोगों को आकर्षित करता है. इसलिये यह एक पिकनिक स्पाट भी बन गया है.आप चाहें पिकनिक के लिये आयें या फिर एक बार देखने के लिये, इस बाग की खूबसूरती से आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.
क्यों जन्म लूँ मैं धरती पर
हाहाकार मचा तब पृथ्वी पर
घटने लगी जब कन्या जन्म दर
हर तरफ पुरूष ही दिखते थे
सब नारी को तरसते थे
इन्द्र का भी सिंहासन डोला
वो पहुँचा प्रभु के पास और बोला
हे नाथ, करो कुछ ठोस उपाय
कैसे पृथ्वी पर कन्या जाय
सब देवों ने किया विचार विमर्श
ऋषियों से भी लिया परामर्श
चिंतन कर खोजा एक उपाय
एक नारी की उत्पत्ति की जाय
प्रभु ने की नारी की रचना
उद्देश्य बताया उसको अपना
जल्दी जाओ तुम धरती पर
बढा़ओ कन्या जन्म दर
नारी बोली क्यों जाऊँ मैं
क्यूँ दर-दर की ठोकर खाऊँ मैं
घर में न मेरा कोई सम्मान
बाहर भी मिले मुझको अपमान
मैं सृष्टि रचती हूँ अपने अंदर
कठिन प्रसव पीडा़ सहकर
मुझको क्या फल मिलता उसका
सौदा होता मेरी अस्मत का
है मरण मुझे स्वीकार प्रभु
पर जन्म न लूँ मैं अब कबहु
प्रभु खड़े रहे निरूत्तर
अब कौन जाये धरती पर ?
घटने लगी जब कन्या जन्म दर
हर तरफ पुरूष ही दिखते थे
सब नारी को तरसते थे
इन्द्र का भी सिंहासन डोला
वो पहुँचा प्रभु के पास और बोला
हे नाथ, करो कुछ ठोस उपाय
कैसे पृथ्वी पर कन्या जाय
सब देवों ने किया विचार विमर्श
ऋषियों से भी लिया परामर्श
चिंतन कर खोजा एक उपाय
एक नारी की उत्पत्ति की जाय
प्रभु ने की नारी की रचना
उद्देश्य बताया उसको अपना
जल्दी जाओ तुम धरती पर
बढा़ओ कन्या जन्म दर
नारी बोली क्यों जाऊँ मैं
क्यूँ दर-दर की ठोकर खाऊँ मैं
घर में न मेरा कोई सम्मान
बाहर भी मिले मुझको अपमान
मैं सृष्टि रचती हूँ अपने अंदर
कठिन प्रसव पीडा़ सहकर
मुझको क्या फल मिलता उसका
सौदा होता मेरी अस्मत का
है मरण मुझे स्वीकार प्रभु
पर जन्म न लूँ मैं अब कबहु
प्रभु खड़े रहे निरूत्तर
अब कौन जाये धरती पर ?
सोमवार, 15 जून 2009
पत्रकारिता:गये वो ज़माने
गये वो ज़माने जब पत्रकारिता आम इंसा की आवाज बना करती थी
तब तो पत्रकारों की तस्वीर भी अलग हुआ करती थी
ना जाने कितने ही कवियों ने कलम को तलवार बनाया
देश और समाज से जुड़े कई मुद्दों को उठाया
पर बदल गया है आजकल इसका स्वरूप
नोटों की ताकत ने बना दिया है इसे कुरूप
अब कलम एक हथियार है
आम जनता ही इसका शिकार है
आज ख़बरों में एन्टरटेनमैंट मिलता है
इसी से तो टीआरपी लेवल बढ़ता है
निज स्वार्थ ही सर्वोपरि है
देश और जनता की किसे पड़ी है
तब तो पत्रकारों की तस्वीर भी अलग हुआ करती थी
ना जाने कितने ही कवियों ने कलम को तलवार बनाया
देश और समाज से जुड़े कई मुद्दों को उठाया
पर बदल गया है आजकल इसका स्वरूप
नोटों की ताकत ने बना दिया है इसे कुरूप
अब कलम एक हथियार है
आम जनता ही इसका शिकार है
आज ख़बरों में एन्टरटेनमैंट मिलता है
इसी से तो टीआरपी लेवल बढ़ता है
निज स्वार्थ ही सर्वोपरि है
देश और जनता की किसे पड़ी है
चेहरे के पीछे का सच
कहते हैं कि "दिल सच्चा और चेहरा झूठा,इस चेहरे ने लाखों को लूटा" यह कहावत आज चरित्रार्थ हो गयी है. जैसे ही मैने अखबार की हेड्लाइन पढ़ी कि "शाहिनी आहूजा द्वारा नौकरानी का बलात्कार"तो सहसा ही मेरे मुख से इसी गाने के बोल निकल पड़े. इस गीत के बोल कितने सटीक हैं. इंसान अपने खूबसूरत चेहरे के पीछे कितने नापाक़ मंसूबे छिपाये रहता है. फिल्मों में चरित्रवान किरदार निभाने वाले ये एक्टर कितने चरित्रहीन और वहशी हैं यह तो समय-समय पर सुर्खियों में रहता ही है, इसी दिशा में आज एक और कड़ी जुड़ गयी है.कभी-कभी लगता है कि स्त्रियाँ जायें तो जायें कहाँ ? हर जगह लोग मुखौटा लगाये रहते हैं. कहीं रिश्तेदारों का चेहरा है ,तो कहीं दोस्तों का. मालिक भी इस होड़ में पीछे नहीं हैं.
मुस्कान
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
दे जाती है
आँखों में चमक और चेहरे पर रौनक
हाँ यह मुस्कान ही तो है
जो डाल दे पत्थर में भी प्राण
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
कभी सोये शिशु के अधरों
पर छलक जाती तो
कभी दो दिन से भूखे भिखारी को
मिलने वाली रोटी के संग
उसके चेहरे पर खिल जाती
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
जब प्यासे को मिले पानी और
डूबते को तिनके का सहारा
तब भी बरबस होठों से
ढलक जाती है ये मुस्कान
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
कोई बिछडा़ मिले बरसों बाद
या कोई बिखरा घरोंदा हो आबाद
फिर सजती है यह चेहरे पर
और छोड़ जाती है अपने निशान
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
दे जाती है
आँखों में चमक और चेहरे पर रौनक
हाँ यह मुस्कान ही तो है
जो डाल दे पत्थर में भी प्राण
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
कभी सोये शिशु के अधरों
पर छलक जाती तो
कभी दो दिन से भूखे भिखारी को
मिलने वाली रोटी के संग
उसके चेहरे पर खिल जाती
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
जब प्यासे को मिले पानी और
डूबते को तिनके का सहारा
तब भी बरबस होठों से
ढलक जाती है ये मुस्कान
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
कोई बिछडा़ मिले बरसों बाद
या कोई बिखरा घरोंदा हो आबाद
फिर सजती है यह चेहरे पर
और छोड़ जाती है अपने निशान
अधखिले होठों पर फैली हल्की सी मुस्कान
अगर विरोध ना करो तो कोइ नही सुनता
कभी-कभी लगता है जैसे हमारी शक्ल पर लिखा है कि हम बेवकूफ हैं.जो चाहे आये और हमें लूटकर ले जाये. इस बार तो मेरे सब्र का बाँध ही टूट गया था.ऐसा लग रहा था कि नोकिया केयर के आफिस में जायें और सारी चीजें तोड़्फोड़ दें ताकि उनहें भी तो पता लगे कि बेवकूफ बनने का एहसास क्या होता है.
जब मैने नोकिया केयर के ओफिस में अपना मोबाइल ठीक कराने के लिये दिया था तब मुझे बडा़ यकीन था कि कम्पनी का मोबाइल कम्पनी की दुकान में ठीक कराना सुरक्षित रहेगा।तब मैं इस बात को भूल गयी थी कि आज विश्वास की कोइ कीमत नहीं.यह बात बहुत ही जल्दी सिद्ध हो गयी क्योकि उन्होंने मोबाइल तो ठीक नही किया अपितु उसे पूर्णतया खराब कर मेरे हाथ में थमा दिया और ऊपर से तुर्रा ये कि आपने मोबाइल को किसी साधारण दुकान में रिपेयर कराया होगा.
बस फिर क्या था उस दिन के बाद से कस्टमर केयर को फोन करने और नोकिया केयर सेन्टर के चक्कर लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।हमने भी इस बार ठान लिया था कि चाहे कुछ हो जाये ,छोड़ेंगे नही. हमारे द्वारा लगातार उनका सिर खाने और हल्ला करने पर उन्होंने स्वीकार किया कि मोबाइल उन्ही से खराब हुआ है. अतः अगले हफ्ते आप अपना मोबाइल सही हालत में ले जाइयेगा.
तो देखा आपने हर जगह चुप रहने से भी काम नही चलता.गलत बात का विरोध भी जरूरी है.
जब मैने नोकिया केयर के ओफिस में अपना मोबाइल ठीक कराने के लिये दिया था तब मुझे बडा़ यकीन था कि कम्पनी का मोबाइल कम्पनी की दुकान में ठीक कराना सुरक्षित रहेगा।तब मैं इस बात को भूल गयी थी कि आज विश्वास की कोइ कीमत नहीं.यह बात बहुत ही जल्दी सिद्ध हो गयी क्योकि उन्होंने मोबाइल तो ठीक नही किया अपितु उसे पूर्णतया खराब कर मेरे हाथ में थमा दिया और ऊपर से तुर्रा ये कि आपने मोबाइल को किसी साधारण दुकान में रिपेयर कराया होगा.
बस फिर क्या था उस दिन के बाद से कस्टमर केयर को फोन करने और नोकिया केयर सेन्टर के चक्कर लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।हमने भी इस बार ठान लिया था कि चाहे कुछ हो जाये ,छोड़ेंगे नही. हमारे द्वारा लगातार उनका सिर खाने और हल्ला करने पर उन्होंने स्वीकार किया कि मोबाइल उन्ही से खराब हुआ है. अतः अगले हफ्ते आप अपना मोबाइल सही हालत में ले जाइयेगा.
तो देखा आपने हर जगह चुप रहने से भी काम नही चलता.गलत बात का विरोध भी जरूरी है.
रविवार, 14 जून 2009
कीमत देकर भी सही सर्विस की उम्मीद ना रखें
आज मेरे लिये बहुत खुशी का दिन था क्योंकि मेरे पति की दूसरी जगह नौकरी लग गयी थी. पहले वह चेन्नई में कार्यरत थे और अब उन्हें जुनीपर नेट्वर्क बैगंलौर में नौकरी मिल गयी थी. दो महीने के नोटिस के बाद वो दिन भी करीब आ गया था जब हमें बैगंलौर के लिये प्रस्थान करना था लेकिन समस्या यह थी की घर का सारा सामान दूसरे शहर कैसे जायेगा. तब हमने "मूवर्स एंड पेकर्स"की चेन्नई स्थित शाखा में सम्पर्क किया तथा उन्की मुह मांगी कीमत पर सामान ले जाने और पहुचाने का आर्डर तय हो गया. हमने उनसे यह भी कहा कि सामान हम बैंगलौर पहुँचने के हफ्ते भर बाद लेंगे.यानि शनिवार/रविवार को क्योंकि आफिस कार्यकाल में मेरे पति के लिये ये मुमकिन नही था.
अतः बैंगलौर पहुँचकर जब हमने शनिवार को मूवर्स एंड पैकर्स शाखा बैंगलौर से सम्पर्क किया तो उन्होने दोपहर तक सामान पहुँचाने का वायदा किय. इसलिए हम लोग सुबह ही अपने द्वारा चुने गये किराये के मकान पर पहुँच गये.दोपहर तक कोइ भी सूचना न मिलने पर हमने दोबारा सम्पर्क साधा उन्होने शाम तक का समय मांग लिया. अब शाम भी बीत गयी लेकिन सामान का कोइ अता-पता नही था और ना ही उनकी तरफ से कोइ फोन आया. हारकर जब हमने शाम को सात बजे फोन किया तब उन्होने रास्ते में ट्रक का टायर पंक्चर होने का बहाना बना दिया.अब हमारे सब्र का बाँध टूट गया था तब मैने खुदु उनसे बात की और कहा कि आपने हमें बेवकूफ समझ रखा है क्या,अगर आपको समान नही पहुँचाना था तो हम से कह देते ताकि हम अपने दिन का इस्तेमाल
दूसरे काम में कर लेते.खैर उन्हे तो अप्ने ही मन की करनी थी.फिर उन्होने अगले दिन सुबह छः बजे आने की बात कह दी.हम लोग गेस्ट हाउस में लौट गये और सुबह ५:३० बजे फिर किराये के मकान पर पहुँच गये लेकिन वो लोग सुबह छः बजे भी सामान नही लाये अंत में बार-बार फोने करने के बाद ११:०० बजे सामान पहुँचा.इतना होने के बाद भी उनके चेहरे पर शिकन नही थी और हम्से टिप की उम्मीद कर रहे थे. हमने भी साफ इंकार कर दिया.
इसे कह्ते हैं नाम बड़े और दर्शन छोटे.असली बात यह थी की उन्हें रविवार को उसी कालौनी में ही सामान उठाने के लिये आना था .दो दो बार आना पड़ेगा सोचकर हमारा सामान भी शनिवार के बदले रविवार को ही के आये.आज के जमाने में पैसा खर्च करने के बाद भी आपको सही सर्विस मिल जाये तो आप भाग्यशाली होगें.
अतः बैंगलौर पहुँचकर जब हमने शनिवार को मूवर्स एंड पैकर्स शाखा बैंगलौर से सम्पर्क किया तो उन्होने दोपहर तक सामान पहुँचाने का वायदा किय. इसलिए हम लोग सुबह ही अपने द्वारा चुने गये किराये के मकान पर पहुँच गये.दोपहर तक कोइ भी सूचना न मिलने पर हमने दोबारा सम्पर्क साधा उन्होने शाम तक का समय मांग लिया. अब शाम भी बीत गयी लेकिन सामान का कोइ अता-पता नही था और ना ही उनकी तरफ से कोइ फोन आया. हारकर जब हमने शाम को सात बजे फोन किया तब उन्होने रास्ते में ट्रक का टायर पंक्चर होने का बहाना बना दिया.अब हमारे सब्र का बाँध टूट गया था तब मैने खुदु उनसे बात की और कहा कि आपने हमें बेवकूफ समझ रखा है क्या,अगर आपको समान नही पहुँचाना था तो हम से कह देते ताकि हम अपने दिन का इस्तेमाल
दूसरे काम में कर लेते.खैर उन्हे तो अप्ने ही मन की करनी थी.फिर उन्होने अगले दिन सुबह छः बजे आने की बात कह दी.हम लोग गेस्ट हाउस में लौट गये और सुबह ५:३० बजे फिर किराये के मकान पर पहुँच गये लेकिन वो लोग सुबह छः बजे भी सामान नही लाये अंत में बार-बार फोने करने के बाद ११:०० बजे सामान पहुँचा.इतना होने के बाद भी उनके चेहरे पर शिकन नही थी और हम्से टिप की उम्मीद कर रहे थे. हमने भी साफ इंकार कर दिया.
इसे कह्ते हैं नाम बड़े और दर्शन छोटे.असली बात यह थी की उन्हें रविवार को उसी कालौनी में ही सामान उठाने के लिये आना था .दो दो बार आना पड़ेगा सोचकर हमारा सामान भी शनिवार के बदले रविवार को ही के आये.आज के जमाने में पैसा खर्च करने के बाद भी आपको सही सर्विस मिल जाये तो आप भाग्यशाली होगें.
जाने क्या-क्या कहती हैं कहानियाँ
कहानियों का जिक्र आते ही आंखो में चमक आ जाती है और बचपन के वही हसीन पल फिर से जीने की आस जगने लगती है.वो संयुक्त परिवार जिसमें दादी-दादा,ताई-ताऊ आदि रिश्तेदारों का जमावड़ा रहता था.यहां कभी बच्चों को बहलाने के लिये तो कभी सुलाने के लिये दादी-नानी कहानियाँ सुनाया करती थी.लेकिन यह भी सच है कि ज्यादातर घरों में ये कहानियाँ बच्चों को खाना खिलाते समय सुनायी जाती थी. चाची या दादी सारे बच्चों को इक्ठ्ठा कर उन्हें गोल घेरे में बिठाकर खाना खिलाती और साथ ही कहानियाँ सुनाती जाती ताकि बच्चों का ध्यान कहानियों में लगा रहे और वो ढंग से खाना खायें.
लेकिन कहानियों का उद्देश्य सिर्फ इतना ही नहीं है. कहानियाँ कभी आपके अकेलेपन का साथी हैं तो कभी समय बिताने का जरिया. यही नही कहानियाँ सीख भी दे जाती हैं.बड़े हो या छोटे सभी को कहानियाँ पसन्द आती हैं.कई बार जो बात हम किसी से कहने में झिझकते हैं वही बात कहने का माध्यम भी कहानी बन जाती है.आजकल कहानियों का स्वरूप बदल गया है. अब एकांकी परिवारों का प्रचलन है.ऐसे में दादी- नानी तो नही होती लेकिन बाजार में कहानियों तथा कविताओं की सीडी आने लगी है। अत: हम आज भी कहानियों का आनंद ले सकते हैं।
लेकिन कहानियों का उद्देश्य सिर्फ इतना ही नहीं है. कहानियाँ कभी आपके अकेलेपन का साथी हैं तो कभी समय बिताने का जरिया. यही नही कहानियाँ सीख भी दे जाती हैं.बड़े हो या छोटे सभी को कहानियाँ पसन्द आती हैं.कई बार जो बात हम किसी से कहने में झिझकते हैं वही बात कहने का माध्यम भी कहानी बन जाती है.आजकल कहानियों का स्वरूप बदल गया है. अब एकांकी परिवारों का प्रचलन है.ऐसे में दादी- नानी तो नही होती लेकिन बाजार में कहानियों तथा कविताओं की सीडी आने लगी है। अत: हम आज भी कहानियों का आनंद ले सकते हैं।
शुक्रवार, 12 जून 2009
पिता ही तो है
जब-जब महानता का प्रश्न उठा है
हम सभी ने माँ को ही चुना है
ये सही है कि माँ अतुलनीय है
लेकिन पिता का ओहदा भी कुछ कम नही है
माँ जन्म देती है,तो पिता ऊँगली पकड़ चलाता है
हमारे भरण-पोषण का भार उठाता है
लड़खड़ाताहै जब भी कदम हमारा
हाथ दे बन जाता है वो सहारा
नारियल की तरह है पिता का प्यार
ऊपर से सख्त,अन्दर से नम्रता का भण्डार
हमने जब भी कोई,सपना बुना है
पिता ही तो है,जिसने उसे सुना है
दिया है जीवन को आधार
अनमोल है पिता का दुलार
खो ना जायें भीड़ में कहीं, यही सोचकर
उठा लेता है वो हमें, अपने कांधों पर
कभी पिठ्ठू तो कभी घोडा़ बना है
हमारे लिये हर दु:ख दर्द सहा है
हम सभी ने माँ को ही चुना है
ये सही है कि माँ अतुलनीय है
लेकिन पिता का ओहदा भी कुछ कम नही है
माँ जन्म देती है,तो पिता ऊँगली पकड़ चलाता है
हमारे भरण-पोषण का भार उठाता है
लड़खड़ाताहै जब भी कदम हमारा
हाथ दे बन जाता है वो सहारा
नारियल की तरह है पिता का प्यार
ऊपर से सख्त,अन्दर से नम्रता का भण्डार
हमने जब भी कोई,सपना बुना है
पिता ही तो है,जिसने उसे सुना है
दिया है जीवन को आधार
अनमोल है पिता का दुलार
खो ना जायें भीड़ में कहीं, यही सोचकर
उठा लेता है वो हमें, अपने कांधों पर
कभी पिठ्ठू तो कभी घोडा़ बना है
हमारे लिये हर दु:ख दर्द सहा है
गुरुवार, 11 जून 2009
यहाँ श्रद्धा भक्ति का कोई मोल नही
कह्ते हैं कि भगवान श्रद्धा-भक्ति और विश्वास के भूखे होते हैं. श्रद्धा से किया गया स्मरण मात्र भी प्रभु को खुश करने के लिये काफ़ी है .लेकिन उनका बनाया इंसान इन बातों को नही समझता. उसकी नजरों में पैसों के बिना किसी चीज का कोई मोल नही है.
जी हाँ मैं बात कर रही हूँ. वैष्णों धाम तथा ऐसे ही कई तीर्थों की जहां श्रद्धालु दूर-दूर से अपनी मुरादें पूरी होने की आस लिये प्रभु दर्शन को आते हैं लेकिन वहां आकर उन्हें मिलता है तिरस्कार. ’जय माता दी’ के नारों के बीच रास्ते की कठ्नाईयों को भुलाते हुए जो श्रद्धालु माता के द्वार पहुँचते हैं ,उन्हें क्या पता होता है कि यहां उनके द्वारा लायी गयी भेंट का कोई आदर नहीं अपितु उसे तो कूड़े की तरह एक कोने में फ़ेंक दिया जायेगा और प्रसाद स्वरूप उन्हें धक्के मिलेंगे ,प्रभु दर्शन तो दूर की बात है.
आज सभी तीर्थस्थानों में प्रोफ़ेशनलिज्म इस कदर हावी हो गया हैकि लोगों की भावनायें कहीं भी मायने नहीं रखती. तीर्थस्थानों में बैठे पुजारियों को तो अपने नोटों से मतलब. इनका शीश प्रभु के आगे नहीं बल्कि ५०० और १००० के नोटों की हरियाली के आगे झुकता है।
जी हाँ मैं बात कर रही हूँ. वैष्णों धाम तथा ऐसे ही कई तीर्थों की जहां श्रद्धालु दूर-दूर से अपनी मुरादें पूरी होने की आस लिये प्रभु दर्शन को आते हैं लेकिन वहां आकर उन्हें मिलता है तिरस्कार. ’जय माता दी’ के नारों के बीच रास्ते की कठ्नाईयों को भुलाते हुए जो श्रद्धालु माता के द्वार पहुँचते हैं ,उन्हें क्या पता होता है कि यहां उनके द्वारा लायी गयी भेंट का कोई आदर नहीं अपितु उसे तो कूड़े की तरह एक कोने में फ़ेंक दिया जायेगा और प्रसाद स्वरूप उन्हें धक्के मिलेंगे ,प्रभु दर्शन तो दूर की बात है.
आज सभी तीर्थस्थानों में प्रोफ़ेशनलिज्म इस कदर हावी हो गया हैकि लोगों की भावनायें कहीं भी मायने नहीं रखती. तीर्थस्थानों में बैठे पुजारियों को तो अपने नोटों से मतलब. इनका शीश प्रभु के आगे नहीं बल्कि ५०० और १००० के नोटों की हरियाली के आगे झुकता है।
लुटेरे बाहर नहीं अन्दर हैं
रघुनाथ मंदिर एक ऐसा धर्म स्थल जो बहुत प्रसिद्ध है. वैष्णो धाम से लौटते हुए हजारों श्रद्धालु जम्मू स्थित इस स्थल पर प्रभु दर्शन के लिये अवश्य आते हैं. रघुनाथ मंदिर की प्रसिद्धता को देखते हुए और आतंकी हमले के बाद यहां चौकसी बढा़ दी गयी है.दरवाजे पर ही पुलिस चौकी है जो सभी आने जाने वालों की तलाशी लेती है ताकि कोइ लूटेरा या आतंकी मंदिर में प्रवेश न कर सके. लेकिन वे यह नही जानते कि असली लूटेरे तो मंदिर के भीतर ही हैं.
अब आप सोचेंगे कि मैं किन लूटेरों कि बात कर रही हूं. आजकल पुजारी किसी लूटेरे से कम हैं क्या? यहां मंदिर में प्रवेश करने के बाद पुजारी पाँच सौ तथा हजार के नोट दिखाकर आपको जताते हैं कि आप भी इसी तरह की दक्षिणा उनकी थाली में रखें,यदि आप ऐसा नही करते तो वो आपको खरी-खोटी सुनाने से और तिरस्कृत करने से भी चुकेंगे.इस मंदिर के प्रांगण में कई अन्य मंदिर भी हैं. अत: लूट्ने का ये सिलसिला हर मंदिर में होता है.
कहा जाता है कि "जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत तिन देखी तैसी".अर्थात जिसकी जो भावना हो उसे वैसा ही दिखाई देता है. जहां श्रद्धालुओं के लिये पत्थर की मूरत साक्षात प्रभु हैं ,वहीं पुजारियों के लिये केवल लूटने का एक जरिया है.
अब आप सोचेंगे कि मैं किन लूटेरों कि बात कर रही हूं. आजकल पुजारी किसी लूटेरे से कम हैं क्या? यहां मंदिर में प्रवेश करने के बाद पुजारी पाँच सौ तथा हजार के नोट दिखाकर आपको जताते हैं कि आप भी इसी तरह की दक्षिणा उनकी थाली में रखें,यदि आप ऐसा नही करते तो वो आपको खरी-खोटी सुनाने से और तिरस्कृत करने से भी चुकेंगे.इस मंदिर के प्रांगण में कई अन्य मंदिर भी हैं. अत: लूट्ने का ये सिलसिला हर मंदिर में होता है.
कहा जाता है कि "जाकी रही भावना जैसी ,प्रभु मूरत तिन देखी तैसी".अर्थात जिसकी जो भावना हो उसे वैसा ही दिखाई देता है. जहां श्रद्धालुओं के लिये पत्थर की मूरत साक्षात प्रभु हैं ,वहीं पुजारियों के लिये केवल लूटने का एक जरिया है.
उत्तरायणी मेला:कुमाउँ-गढ़वाल का अनूठा संगम
रामगंगा के किनारे बसा बरेली शहर यूँ तो कई चीजों के लिये प्रसिद्ध है लेकिन उत्तरायणी मेला यहाँ का मुख्य आकर्षण है। प्रतिवर्ष १४-१५ जनवरी को मकर संक्रान्ति के अवसर पर,उत्तरायणी मेला बरेली में आयोजित किया जाता है.कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति पर्व पर सूर्य दक्षिणायण से उत्तरायण मे प्रवेश करते है.इस पर्व को उत्तराँचल में धूमधाम से मनाया जाता है.यही से उत्तरायणी मेले का आरम्भ हुआ है. पर्व को उत्साहपूर्वक मनाने तथा कुमाऊँ-गढ़वाल की संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिये उत्तरायणी मेला समिति का गठन किया गया है. यही समिति हर साल उत्तरायणी मेले का आयोजन करती है. इस आयोजन में कुमाऊँ-गढ़वाल के बड़े-बड़े नेता-अभिनेता भी सहयोग प्रदान करते हैं.यही नही कुमाऊँ-गढ़वाल के लोग जो कि बरेली में रह रहे हैं,इस आयोजन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. उत्तरायणी मेले का मुख्य आकर्षण यहाँ दो दिन तक लगातार चलने वाला साँस्कृतिक कार्यक्रम है.
उत्तरायणी मेला कुमाऊँ-गढ़वाल का एक ऐसा संगम है जहाँ दोनों ही मंडलों कि विभिन्न लोक कलाओं रूपी नदियाँ देखने को मिलती हैं.कुमाऊँ-गढ़वाल मंडल के विभिन्न शहरों से आये कलाकार यहाँ साँस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं. उत्तरायणी मेले का आरम्भ १४ जनवरी को शहर में शोभा यात्रा निकालकर किया जाता है. विभिन्न कलाकार सड़कों पर नृत्य करते हुए चलते हैं.इन झाँकियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे पूरा उत्तराँचल बरेली में समाहित हो गया है. शहर की शोभा देखते ही बनती है. शोभायात्रा मेला परिसर में पहुँचकर समाप्त होती है. उसके पश्चात साँस्कृतिक कार्यक्रमों का सिलसिला शुरु हो जाता है.साँस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा मेले में कई प्रतियोगितायें भी आयोजित की जाती हैं. इनमें से मिस्टर उत्तरायणी और मिस उत्तरायणी प्रमुख है.इस प्रतियोगिता में कुमाऊँ-गढ़वाल के परिधानों तथा भाषा का विशेष ध्यान रखा जाता है. इस मेले की खासियत यह है कि यहाँ पर कुमाऊँ-गढ़वाल मंडल में मिलने वाली सामग्रियों की दुकानें लगायी जाती हैं. अत: अपने मंडल से दूर रह रहे लोगों के लिये यह सुनहरा मौका होता है जब वो अपने प्रदेश में मिलने वाली वस्तुयें खरीद सकें. जब उत्तरायणी समिति का गठन हुआ था और मेले का शुभारम्भ किया गया तब उन सदस्यों ने सोचा भी नही होगा कि उनका यह प्रयास लोगों को इतना पसंद आयेगा. पर कहते हैं न की"मै तो अकेला ही चला था मंजिल ए गाफ़िल, लोग आते गये कांरवा बनता गया" खैर संस्कृति कोइ भी हो यदि हमारा उद्देश्य साँस्कृतिक धरोहरों को बचाना है तथा उनका प्रचार करना है तो लोगों की सराहना और साथ दोनों ही मिलता है, उत्तरायणी मेला इसका उदाहरण है.
एम.आर.पी.के ऊपर भी कीमत
सभी कहते है कि बंगलौर शहर बहुत महँगा है ,लेकिन तब हमें लगता था कि आजकल तो महंगाई हर जगह है फिर लोग न जाने क्यों बंगलौर के लिए ऐसा कहते है। बंगलौर आने के बाद हमारी आँखें धीरे-धीरे खुलने लगीं हैं।हमने देखा ,यहाँ तो लोग कदम-कदम पर आपको लूटने के लिए तैयार बेठे हैं । अगर आपको जरा भी जानकारी न हो तो ये लोग दो रुपए कि चीज बीस रुपए में और बीस रुपए कि चीज दो सौ रुपए में थमा दें। यही नही यहाँ आकर ही हमने देखा कि ये तो एम.आर.पी.के ऊपर भी ग्राहक से कीमत वसूलते हैं। जी हाँ , मैं सच कह रही हूँ। अगर आप डेयरी के अलावा दूध/दही कहीं और से लेते हैं तो वो दूकानदार आपसे एम.आर.पी. के ऊपर ५०पैसे ज्यादा लेगा। विरोध करने पर दूकानदार जबाव देता है कि हमें भी तो डेयरी वाले एम.आर.पी.पर देते हैं तो दुकान में दूध/दही रखने कि कीमत तो हम भी वसूलेंगे। एक तरफ़ तो सरकार "जागो ग्राहक जागो " के नारे लगाती है वहीं दूसरी और कंपनी वाले अपनी आँखें मूंदे हुऐ हैं। उपभोक्ता करे तो क्या करे? वो ख़ुद तो जाग जाता है लेकिन कंपनी वालों को कैसे जगाये ? ऐसा तो हो नही सकता कि वो लोग इन बातों से अंजान हों ।
बुधवार, 3 जून 2009
उत्तरांचल और परम्पराएं
ऊँचे -ऊँचे चीड के पेड़ ,प्राकृतिक स्रोतों से बहता पानी .सीढीनुमा खेत और दूर तक जाती हुई पतली पग्दंदियाँ। हाँ कुछ ऐसा ही दृश्य हमारी आंखों के आगे छा जाता है जब हम उत्तरांचल का जिक्र करते हैं। उत्तरांचल ,एक ऐसा भूखंड है जो प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अपने रीति-रिवाजों के लिए जाना जाता है। यहाँ की सांस्कृतिक धरोहरें दूर शहरों में बसे लोगों को आज भी आकर्षित करती हैं।
गीत-संगीत हो या फिर त्योहारों की रौनक उत्तरांचल की सभी परम्पराएँ बेजौड़ हैं । इनमें से उत्तरांचल की होली, रामलीला , ऐपण ,रंगयाली पिछोड़ा , नथ, घुघूती का त्यौहार आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। यदि खान-पान की बात की जाए तो यहाँ के विशेष फल -काफल, हिशालू , किल्मौडा, पूलम हैं तथा पहाड़ी खीरा, माल्टाऔर नीबू का भी खासा नाम है। जीविका के लिए उत्तरांचल छोड़कर जो लोग शहरों में बस गए हैं , उन्हें यही परम्पराएं अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करती हैं साथ ही साथ उत्तरांचल वासी होने का एहसास उनमें सदा जीवंत रहता है।
ऐपण
उत्तरांचल में शुभावसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली को ऐपण कहते हैं। ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण होता है.ऐपण के मुख्य डिजायन -चौखाने , चौपड़ , चाँद , सूरज , स्वस्तिक , गणेश ,फूल-पत्ती, बसंत्धारे तथा पो आदि हैं। ऐपण के कुछ डिजायन अवसरों के अनुसार भी होते हैं। ऐपण बनने के लिए गेरू तथा चावल के विस्वार का प्रयोग किया जाता है। आजकल ऐपण के रेडीमैड स्टीकर भी प्रचलन में हैं।
घुघूती
घुघूती उत्तरांचल का प्रसिद्द त्यौहार है.यह हर वर्ष १४-१५ जनवरी को मकरसंक्रांति के दिन मनाया जाता है । यह त्यौहार बहुत ही शुभ माना जाता है, साथ ही अन्य त्योहारों की तरह धूम धाम से मनाया जाता है। इसे घुघुते का त्यौहार भी कहते है। मकरसंक्रांति के दिन शाम को घुघुते बनाये जाते है और उन्हें माला में पिरोकर बच्चों को पहनाया जाता है । अगले दिन प्रातकाल को ये घुघुते कौऔं को खिलाये जाते है। कौऔं को बुलाने के लिए विशेष शब्दों का प्रयोग करते है। "खाले खाले कौए खाले , पूस में माघ का खाले "। ये त्यौहार सभी के लिए बहुत शुभ है क्योंकि इसी समय सूर्य दक्षिण से उत्तर में प्रवेश करते हैं ।
रंगयाली पिछोड़ा
उत्तरांचल में विवाह के आलावा अन्य शुभावसरों पर पहने जाने वाली चुनरी को रंगयाली पिछोड़ा कहते है। यह संयुक्त रूप से लाल तथा पीले रंग का होता है। ऐपण की तरह इसमें भी शंख , चक्र , स्वस्तिक , घंटा , बेल-पत्ती, फूल, आदि शुभ चिन्हों का प्रयोग होता है। पहले लोग घर पर ही कपड़ा रंग कर पिछोड़ा तैयार करते थे । प्रचलित होने के कारन अब रंगयाली पिछोड़ा रेडीमेड भी आने लगे हैं। इन्हे और सुंदर बनाने के लिए इन पर लेस , गोटा, सितारे आदि लगाए जाते हैं।
नथ
उत्तरांचल के आभूषन भी अपनी पहचान बनाने में कम नही हैं। उत्तरांचल की नथ (नाक में पहने जाने वाला गहना )अपने बड़े आकार के कारण प्रसिद्द है। यह आकार में बड़े गोलाकार की होती है और इसके ऊपर मोर आकृति आदि डिजायन बनाए जाते हैं। इन डिजायनों को बनाने के लिए नगों तथा मीनाकारी का प्रयोग जाता है।
यूँ तो उत्तरांचल की सांस्कृतिक रूप को चंद लाइनों में नही समेटा जा सकता । फिर भी इन मुख्य परम्परों से हमें उत्तरांचल के सांस्कृतिक पहलुओं की एक झलक देखने को मिलती है। अगर यह झलक हमारी परम्पराओं और संस्कृति को बचाए रखने के लिए प्रेरित करती है तो मेरा यह कदम सही है।
गीत-संगीत हो या फिर त्योहारों की रौनक उत्तरांचल की सभी परम्पराएँ बेजौड़ हैं । इनमें से उत्तरांचल की होली, रामलीला , ऐपण ,रंगयाली पिछोड़ा , नथ, घुघूती का त्यौहार आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। यदि खान-पान की बात की जाए तो यहाँ के विशेष फल -काफल, हिशालू , किल्मौडा, पूलम हैं तथा पहाड़ी खीरा, माल्टाऔर नीबू का भी खासा नाम है। जीविका के लिए उत्तरांचल छोड़कर जो लोग शहरों में बस गए हैं , उन्हें यही परम्पराएं अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करती हैं साथ ही साथ उत्तरांचल वासी होने का एहसास उनमें सदा जीवंत रहता है।
ऐपण
उत्तरांचल में शुभावसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली को ऐपण कहते हैं। ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण होता है.ऐपण के मुख्य डिजायन -चौखाने , चौपड़ , चाँद , सूरज , स्वस्तिक , गणेश ,फूल-पत्ती, बसंत्धारे तथा पो आदि हैं। ऐपण के कुछ डिजायन अवसरों के अनुसार भी होते हैं। ऐपण बनने के लिए गेरू तथा चावल के विस्वार का प्रयोग किया जाता है। आजकल ऐपण के रेडीमैड स्टीकर भी प्रचलन में हैं।
घुघूती
घुघूती उत्तरांचल का प्रसिद्द त्यौहार है.यह हर वर्ष १४-१५ जनवरी को मकरसंक्रांति के दिन मनाया जाता है । यह त्यौहार बहुत ही शुभ माना जाता है, साथ ही अन्य त्योहारों की तरह धूम धाम से मनाया जाता है। इसे घुघुते का त्यौहार भी कहते है। मकरसंक्रांति के दिन शाम को घुघुते बनाये जाते है और उन्हें माला में पिरोकर बच्चों को पहनाया जाता है । अगले दिन प्रातकाल को ये घुघुते कौऔं को खिलाये जाते है। कौऔं को बुलाने के लिए विशेष शब्दों का प्रयोग करते है। "खाले खाले कौए खाले , पूस में माघ का खाले "। ये त्यौहार सभी के लिए बहुत शुभ है क्योंकि इसी समय सूर्य दक्षिण से उत्तर में प्रवेश करते हैं ।
रंगयाली पिछोड़ा
उत्तरांचल में विवाह के आलावा अन्य शुभावसरों पर पहने जाने वाली चुनरी को रंगयाली पिछोड़ा कहते है। यह संयुक्त रूप से लाल तथा पीले रंग का होता है। ऐपण की तरह इसमें भी शंख , चक्र , स्वस्तिक , घंटा , बेल-पत्ती, फूल, आदि शुभ चिन्हों का प्रयोग होता है। पहले लोग घर पर ही कपड़ा रंग कर पिछोड़ा तैयार करते थे । प्रचलित होने के कारन अब रंगयाली पिछोड़ा रेडीमेड भी आने लगे हैं। इन्हे और सुंदर बनाने के लिए इन पर लेस , गोटा, सितारे आदि लगाए जाते हैं।
नथ
उत्तरांचल के आभूषन भी अपनी पहचान बनाने में कम नही हैं। उत्तरांचल की नथ (नाक में पहने जाने वाला गहना )अपने बड़े आकार के कारण प्रसिद्द है। यह आकार में बड़े गोलाकार की होती है और इसके ऊपर मोर आकृति आदि डिजायन बनाए जाते हैं। इन डिजायनों को बनाने के लिए नगों तथा मीनाकारी का प्रयोग जाता है।
यूँ तो उत्तरांचल की सांस्कृतिक रूप को चंद लाइनों में नही समेटा जा सकता । फिर भी इन मुख्य परम्परों से हमें उत्तरांचल के सांस्कृतिक पहलुओं की एक झलक देखने को मिलती है। अगर यह झलक हमारी परम्पराओं और संस्कृति को बचाए रखने के लिए प्रेरित करती है तो मेरा यह कदम सही है।