गुरुवार, 20 जून 2013

प्रकृति का आक्रोश




















सीना फटा आकाश का
या धरती ने करवट ली है
ए दोस्तों समझो इसको
ये प्रकृति ने दस्तक दी है

खिलौने के जैसे खेलते हैं हम
जब तब इन प्राकृतिक उपादानों से
तंग आ गई है अब कुदरत भी
हम धूर्त, कपटी और नादानों से

कब तलक चुप बैठे, सिसके
और तड़पती रहे अपने हाल पे
चाख हृदय लेकर झपटी तो
ग्रास बन गए हम काल के

सुनो इस वीभत्स चित्कार को
या फिर कहूँ इस ललकार को
गर अब भी न बदला चलन
फिर कौन रोकेगा इस तलवार को

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