शनिवार, 29 जून 2013

समझो ए नादनो

काश ये नांदा समझ पाते इन इशारों को
हमने गिरते देखा है कितनी ही बुलंद मीनारों को

आज जो जर्रा है कल फलक पर पहुँच सकता है
आसमान पर चमकते चाँद को भी ग्रहण लग सकता है

वक्‍त का ऊँट कहो कब इक करवट बैठा है
बिन पेंदी का लोटा है कहीं भी लुढ़क सकता है

समझो इन हवाओं के रुख को ए नासमझो
घमंड से भरा ये सर कभी भी कट सकता है

गुरुवार, 20 जून 2013

प्रकृति का आक्रोश




















सीना फटा आकाश का
या धरती ने करवट ली है
ए दोस्तों समझो इसको
ये प्रकृति ने दस्तक दी है

खिलौने के जैसे खेलते हैं हम
जब तब इन प्राकृतिक उपादानों से
तंग आ गई है अब कुदरत भी
हम धूर्त, कपटी और नादानों से

कब तलक चुप बैठे, सिसके
और तड़पती रहे अपने हाल पे
चाख हृदय लेकर झपटी तो
ग्रास बन गए हम काल के

सुनो इस वीभत्स चित्कार को
या फिर कहूँ इस ललकार को
गर अब भी न बदला चलन
फिर कौन रोकेगा इस तलवार को

मंगलवार, 4 जून 2013

पर्यावरण

सघन वन और घटा घनघोर
नभ पे छाई लालिमा चहुँ ओर
पर्वतों से नदियाँ निकलती
डालियों पर कलियाँ खिलती
देखकर सब दंग हैं
ये सब पर्यावरण के अंग हैं

पंछियों का डेरा चमन में
सौंधी सुगंध बसे पवन में
बादलों से गिरता पानी
कहता कुदरत की कहानी
फूलों के जितने रंग हैं
ये सब पर्यावरण के अंग हैं

यह क्षेत्र विस्तृत है बड़ा
प्रकृति की भेंटों से भरा
भरता मन में उमंग है
ये सब पर्यावरण के अंग हैं