शुक्रवार, 6 मार्च 2009

फागुन आयो रे

फागुन मास लगते ही होली की उमंग बदने लगती है। एक हल्का मीठा सा एहसास दिलों में दस्तक देने लगता है। भई
ऐसा हो भी क्यूँ न होली का त्यौहार ही ऐसा है। एक तरफ बच्चों में गुब्बारे ,पिचकारी ,रंग आदि की होड़ लग जाती है, वहीं दूसरी और युवा होली के बहाने आँख-मिचौली खेलने लगते हैं। बुजुर्गों का तो कहना ही क्या ? वो भी गुजियों और पकवानों का स्वाद ले अपने बचपन व जवानी के किस्से सुनाने में पीछे नही रहते। होली की उमंग हर दिल में ,उम्र को पीछे छोड़ जोर मारती है। एक सतरंगी माहौल चहूंओर नज़र आता है। शायर और लेखक तो ऐसे पलों के लिए तरसते हैं । होली का रंगीन मौसम उनकी कल्पनाओं की उड़ान को और तेज कर देता है।

पिचकारी .गुब्बारों और अबीर-गुलाल से सजी दुकाने मन के तार छेड़ जाती हैं,और गुजिया ......गुजिया की तो कल्पना मात्र ही मुंह में पानी ले आती है, फिर मिठाइयों और पकवानों से सजे पंडालों का कहना ही क्या ,इन्हे देखकर तो मन मयूर बेकाबू हो नृत्य करने लगता है । ऐसा लगता है की होली के जशन का सिलसिला यू ही चलता रहे कभी थामे ही ना और हम सभी तन-मन दोनों से प्यार के रंगों में रंग जायें । एक एइसा प्यार और विश्वास का गहरा रंग उभरे जो सारी उम्र हमें भिगोये रखे । इस रंग के आगे सभी गिले -शिकवों दुश्मनी और बुराइयों के रंग फीके पड़ जायें । बस एक ही रंग रहे जो प्यार,शंतिऔर सद्भावना का प्रतीक बन बसुधैव कुटुम्बकम को बढावा दे।

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