बुधवार, 20 जुलाई 2022

मैं वृक्ष हूँ

 मैं वृक्ष हूँ

जड़ें मेरी ज़मीन में हैं गढ़ी

आँखें मेरी आसमान से लड़ीं

स्वाभिमान से लहलहाता हूँ मैं

दानदाता कहाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

मेरा रोम-रोम समर्पित है

मानवता के लिए, जो भी अर्जित है

दिन-रात लुटाता हूँ मैं

कभी नहीं जताता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

रोक लेता हूँ, भूमि के कटाव को

चढ़ी नदी के बहाव को

तापमान को गिराता हूँ मैं

बरसात भी करवाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

पथिक को देता छाया 

भूखे को कंद मूल 

पंछियों को आसरा दिलाता हूँ मैं

जीवन आसान बनाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

तुम्हारे घर में सजीं चीजों में

खेत-खलिहान और बगीचों में

शान से लहराता हूँ मैं

कागज़-कलम बनाता हूँ मैं


मैं वृक्ष हूँ

रीढ़ हूँ मैं तुम्हारी

मेरे बिना जीना भारी

बीज़ से बीज़ बनाता हूँ मैं

एक वृक्ष तुम भी लगाओ

बस इतना ही चाहता हूँ मैं




दीपाली पंत तिवारी 'दिशा' 

बैंगलूर (कर्नाटक)

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

यादों का मौसम

इंतजार खत्म हुआ तपती धरती का

झूम के सावन आया है

खेतों में फिर झूमती-बलखाती-लहलहाती 

फ़सलों का मौसम आया है


इधर वन में नृत्य दिखाने को

कब से मयूर था बेक़रार

उधर सावन-मनभावन के आने से

कोयल कूक रही है बारंबार


छोटे बच्चे छप-छप करते और इतराते 

रिमझिम पानी की बौछारों में

बूढ़े और जवान सैर को निकले

बचपन के गलियारों में


देखो कागज़ की नाव बना लाया है

मेरा मन भी ललचाया है

तू और मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू 

यादों का मौसम आया है









दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

बैंगलौर (कर्नाटक)

स्कूल चलें हम

घर से बाहर रखें कदम

आओ बच्चो स्कूल चले हम

स्कूल की दुनिया प्यारी है

सारे जग से न्यारी है


स्कूल तो मंदिर जैसा है

ज्ञान का दीपक जलता है

अज्ञानता को दूर भगाएँ

शिक्षक तुमको ऐसा पढ़ाएँ


छूट गए थे बस्ते तुम्हारे

भूल गए तुम सारे पहाड़े

अब नए तराने तुम गाओगे 

जब रोज स्कूल तुम जाओगे


रोको तुम न अपने कदम

आओ बच्चो स्कूल चले हम

हो गयी सारी तैयारी है

स्कूल जाने की बारी है



दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

बैंगलूर (कर्नाटक)