शुक्रवार, 29 मई 2009

क्या ये आतंक नही

भारतीय संस्कृति धर्मनिरपेक्षता ,सहनशीलता और शान्ति का प्रतीक रही है।किंतु आज बदलते परिवेश में सब कुछ पीछे छूट गया है । एक समय था जब गांधीजी ने अहिंसा के पथ पर चल कर आजादी की लडाई लड़ी थी तथा अपने अहिंसा के पथ पर अडिग रह अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया था ,पर आज लोग गांधीगिरी नही दादागिरी में विश्वास करते हैं। बिना जाने की उनके कृत्य का क्या परिणाम होगा वो हो-हल्ला शुरू कर देते हैं।

जम्मू ,लुधियाना ,फगवाडा,पंजाब ,जालंधर आदि स्थानों में घटित घटनाक्रम ,लोगो में देश के प्रति जिम्मेदारी का न होना और असहनशीलता का बदना दर्शाता है। क्या ये सही है की "करे कोई और भरे कोई "। ये सच है की वियना में भारतीय संतों के साथ जो घटित हुआ वह ग़लत था तथा पूर्णतया निंदनीय है किंतु इसका मतलब यह नही की हम विरोध करने के लिए अपने ही देश में दंगा करें अथवा अपने ही देश की संपत्ति का नाश करें। क्या कभी सोचा है की इन घटनाओं से कितने लोगों को कठनाइयों का सामना करना पड़ता है। यही नही इन बिगड़ते हालातों के चलते अनजाने ही कितने मासूमों को अपने जान गंवानी पड़ती है। हम आतंकवादियों को कोसते हैं,लेकिन विरोध जताने के लिए या फिर अपनी मांग मनवाने के लिए जो तरीका हम अपनाते हैं क्या यह किसी आतंकवादी घटना से कम है ?

जिन रेलों और बसों असुविधा होने पर हम शिकायतें करते नजर आते हैं ,उसी संपत्ति का नाश करने पर क्या हम अपने ही सुविधा के साधनों में कमी नही कर रहे हैं ? गलत बात का विरोध करना जरूरी है पर साथ ही विरोध करने का तरीका भी उचित होना चाहिए । देश के समस्त नागरिकों को एक बार इन पहलुओं पर जरूर सोचना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं पर विराम लगे।

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