शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

आकाश



परिवर्तन के इस युग में बहुत कुछ बदल गया हैं। तन के साथ मन में भी हजारों विकार आ गए हैं । पहले अनेकता में एकता का भाव निहित रहता था लेकिन आज भौतिकता इतनी ज्यादा हावी हो गई है कि भाईचारा और अपनापन कहीं खो गया है । यही नही इंसान तो आज धरती ,चाँद -सितारों को भी बाँटने कि फिराक में है । ऐसेमें यह प्राकृतिक तत्व चित्कार कर उठते हैं ----------------



यह आकाश है ,कितना विशाल

करोड़ों सितारों को समाये

जैसे कोई माँ अपने आँचल में अपना लाल छुपाये

यह आकाश है कितना तरल

बाद में जलधार छुपाये

सारे संसार की प्यास बुझाए

यह आकाश है कितना सरल

मन में इसके कभी कपट न आए

गरीब हो या अमीर

सबको अपनी पनाह में लाये

यह आकाश है लेकिन आज

इसकी आँखें है सजल

क्योंकि वो खुदगर्ज मांगते हैं

अपने हिस्से का आसमान

जिन्हें वो अपने आँचल में फिरता था बसाये

यह आकाश है कितना विह्वल

हिस्सों में बँटा

अपना चाख हृदय किसे दिखाए

कौन है जो सिये उसके जख्मों को

और उन पर मरहम लगाए

यह आकाश है शायद

लेकिन क्या यह है अब विशाल ?

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