दिशा जिन्दगी की, दिशा बन्दगी की, दिशा सपनों की, दिशा अपनों की, दिशा विचारों की, दिशा आचारों की, दिशा मंजिल को पाने की, दिशा बस चलते जाने की....
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
आकाश
परिवर्तन के इस युग में बहुत कुछ बदल गया हैं। तन के साथ मन में भी हजारों विकार आ गए हैं । पहले अनेकता में एकता का भाव निहित रहता था लेकिन आज भौतिकता इतनी ज्यादा हावी हो गई है कि भाईचारा और अपनापन कहीं खो गया है । यही नही इंसान तो आज धरती ,चाँद -सितारों को भी बाँटने कि फिराक में है । ऐसेमें यह प्राकृतिक तत्व चित्कार कर उठते हैं ----------------
यह आकाश है ,कितना विशाल
करोड़ों सितारों को समाये
जैसे कोई माँ अपने आँचल में अपना लाल छुपाये
यह आकाश है कितना तरल
बादल में जलधार छुपाये
सारे संसार की प्यास बुझाए
यह आकाश है कितना सरल
मन में इसके कभी कपट न आए
गरीब हो या अमीर
सबको अपनी पनाह में लाये
यह आकाश है लेकिन आज
इसकी आँखें है सजल
क्योंकि वो खुदगर्ज मांगते हैं
अपने हिस्से का आसमान
जिन्हें वो अपने आँचल में फिरता था बसाये
यह आकाश है कितना विह्वल
हिस्सों में बँटा
अपना चाख हृदय किसे दिखाए
कौन है जो सिये उसके जख्मों को
और उन पर मरहम लगाए
यह आकाश है शायद
लेकिन क्या यह है अब विशाल ?
बरसाती मेढक
कहते हैं कि बरसात हो और मेढकों के टर्राने की आवाज सुनने को न मिले ऐसा हो ही नही सकता । जितनी जयादा बारिश उतनी ही जयादा मेढकों की आवाजें । लेकिन यह भी सच है कियह बरसाती मेढक बारिश के बाद कहाँ हवा हो जाते हैं यह किसी को पता नही लगता । आज समाज में संसकृति कि रक्षा करने का दम भरने वाले दलों की हालत भी इन बरसाती मेढकों के जैसी ही है जो वेलेंतैन डे आते ही अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं और उसके बाद इनका दूर- दूर तक नाम नज़र नही आता । समाज में बलात्कार , नशा , देह व्यापार तथा बच्चों के साथ दुराचार आदि नित्य दुष्कर्म हो रहें हैं तब यह संसकृति के रखवाले कहाँ खो जाते हैं । मदद तो दूर कि बात है तब अख़बार व चैनलों में इनके बयान भी नज़र नही आते । रही भारतीय संस्कर्ति और सभ्यता की बात तो इन कथित दलों के प्रतिनिधियों की छोटी सोच से कहीं जयादा विस्तृत है । सिर्फ़ चर्चित होने के लिए भारतीय संस्कृति का झुनझुना बजाने वाले ये दल साल भर में केवल वेलेंतैन डे पर ही शहरों में जगह जगह उपद्रव कर कौन सी संसकृति का परिचय देते हैं यह तो वे स्वयं ही परिभाषित कर सकते हैं।
--दिशा