रविवार, 2 फ़रवरी 2020

उपदेश



मेरठ के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक लघुकथा


गद्य-लघुकथा
शीर्षक-उपदेश

रमाकांत संस्कृत के अध्यापक थे। आज ही तो कक्षा में विद्यार्थियों को नीति श्लोक पढ़ा रहे थे कि 
'वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्वित्तमायाति याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥'
चारित्र का रक्षण बहुत यत्न से करना चाहिए । धन तो आता है और जाता है । धन से क्षीण होनेवाला क्षीण नहीं है, पर जिसका चरित्र चला गया उसका सब कुछ नष्ट होता है ।

लेक्चर समाप्त होते ही वो सीधे उस स्थान पर पहुँचे जिसे बदनाम गली के नाम से जाना जाता है। रात बारह बजे लड़खड़ाते कदमों से रमाकांत जी जब बस गिरने को ही थे कि एक विद्यार्थी ने उन्हें सँभाल लिया लेकिन उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी। वह समझ नहीं पाया कि विद्यालय में चरित्र के ऊपर उपदेश देने वाले अध्यापक स्वयं अपने चरित्र की रक्षा नहीं कर पाए।

सच्ची जीत

छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

*शीर्षक- सच्ची जीत*

मयंक हमेशा ही कक्षा में अव्वल आता था। इस बात से वह इतना प्रभावित हो चुका था कि उसे लगने लगा अब कोई उसे हरा नहीं सकता। विद्यालय की अध्यापिका श्रीमती रेखा ने जब यह नोटिस किया तब निर्णय लिया कि वह मयंक को गलत दिशा में नहीं जाने देंगी।

रेखा जी हिंदी विषय पढ़ाती थीं। उन्होंने कक्षा में एक सामूहिक गतिविधि का आयोजन किया। गतिविधि के अनुसार सभी समूहों को बारी-बारी व्याकरण के दिए गए विषयों को कक्षा में पढ़ाना था। रेखा जी ने पूरी कक्षा को सात-सात बच्चों के चार समूहों में बाँट दिया। हर समूह का एक नेता भी बनाया। मयंक अपने समूह का नेता बना। 

रेखा जी ने सभी विद्यार्थियों को नियम समझा दिए और कहा कि सच्ची जीत वह होती है जिसमें व्यक्तिगत उपलब्धि की बजाय अपने समूह के हर एक सदस्य को साथ लेकर जीत की ओर अग्रसर किया जाए। मयंक तो अकेला ही चलने का आदी था। उसे सबके साथ मिलकर काम करने में बड़ी उलझन हो रही थी। लेकिन नियम के अनुसार समूह के हर सदस्य की भागीदारी आवश्यक थी।

मयंक के समूह में एक लड़का था रवि जो पढ़ाई में कमज़ोर था। शुरुआत में तो मयंक बार-बार उसको धिक्कारता कि उसकी वजह से वो हार जाएगा। लेकिन जब गतिविधि के लिए कुछ ही दिन रह गए तब उसने रवि को स्वयं पढ़ाने का निर्णय लिया। लंच के समय या खेल के पीरियड में मयंक उसे लेकर  अलग बैठ जाता और दिए गए विषय को समझाने की कोशिश करता। धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी और रवि की पढ़ाई में रुचि बढ़ने लगी। अब वो भी मयंक की तरह होशियार हो गया। इस सब से रवि का आत्मविश्वास भी बहुत बढ़ गया। उसने मयंक का बहुत धन्यवाद किया।
पहले तो मयंक यह सब गतिविधि में अव्वल आने के लिए ही कर रहा था; परन्तु रवि के स्तर में सुधार आने से उसे स्वयं भी खुशी हो रही थी। तय तारीख पर गतिविधि का आयोजन हुआ। मयंक ने अपने समूह से रवि को ही मुख्य सदस्य के रूप में पढ़ाने का अवसर दिया। रवि का आत्मविश्वास देखते ही बनता था।
अध्यापिका रेखा जी तो मयंक का चेहरा देख रही थीं। आज उसकी आँखों में घमंड नहीं था बल्कि रवि की सफलता के लिए खुशी छलक रही थी। रेखा जी ने गतिविधि के परिणाम बताए। मयंक का समूह ही प्रथम आया था लेकिन इस बार सबसे अधिक प्रशंसा रवि को मिली। मयंक तो बार-बार रवि को गले लगाकर बधाई देते नहीं थक रहा था। रेखा जी को इस बात का सन्तोष था कि उनकी योजना काम कर गई और मयंक को सच्ची जीत का अर्थ समझ आ गया।



मोहभंग

हरियाणा के प्रतिष्ठित अख़बार में प्रकाशित मेरी एक कहानी।

विधा-कहानी
वृंदा और सतीश दोनों ही अपने इकलौते पुत्र की शादी से बहुत खुश थे। उन्हें भरोसा था कि अब उनका पुत्र और वधू घर-गृहस्थी को अच्छे से सँभाल लेंगे। वे पहले से ही पुत्र के विवाह के बाद निश्चिंत जीवन के सपने देखते थे। वृंदा जी और सतीश जी की उम्र हो चुकी थी। अपने काम और भरण-पोषण के लिए वो निर्भर नहीं थे। लेकिन जैसे- जैसे उम्र बढ़ती है मनुष्य शारीरिक रूप से लाचार होने लगता है। ऐसे में उन्हें देखभाल और आराम की आवश्यकता महसूस थी। 

वृंदा जी बहुत जुझारू किस्म की महिला रही थीं। वह शारीरिक तकलीफों के बावजूद भी कामकाज में लगी रहती थीं। बहू के आने से घर में रौनक हो गई थी। शुरू के साल-छह महीने काफ़ी अच्छे से गुजरे। धीरे-धीरे बहू-बेटे की नादानियाँ बढ़ने लगीं। बहू अपने मायके का मोह नहीं छोड़ पाई थी। जब मौका लगे लंबे समय के लिए मायके चली जाती। उनका पुत्र रजत यह नहीं समझ पा रहा था कि इस तरह वह अपनी पत्नी नीता को जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना सीखा रहा है।

रजत की सोच थी कि स्त्री-पुरुष को मिल-जुलकर काम करने चाहिए। इसलिए वह हर काम में ज़्यादा से ज़्यादा नीता की सहायता करता था। लेकिन नीता पर इन सब बातों का उल्टा असर हुआ। इन सब चीज़ों के लिए वो अपने पति रजत का धन्यवाद कहने की बजाय गैर-जिम्मेदार हो गई।

धीरे-धीरे सतीश और वृंदा जी को लगने लगा कि वे इस घर में सिर्फ़ एक शोपीस की तरह हैं; जिसे घर में सजाकर तो रखा जाता है लेकिन उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। उन दोनों को परिवार होकर भी अकेलेपन का एहसास होता। वो जब कभी इस बारे में रजत से बात करते तो वो उन्हें ही काट खाने को आता। वे दोनों अंदर ही अंदर घुटने लगे। दोनों की उम्र हो चुकी थी और उम्र के इस पड़ाव पर वे मान-सम्मान और अपनेपन की आस लिए दिन काट रहे थे।

सालभर में रजत और नीता के एक बिटिया भी हो गयी। दादा-दादी बनने की खुशी में वृंदा और राजेश जी बहुत खुश थे। उन्हें अपने सूने जीवन में एक उम्मीद की किरण दिखाई दी। लेकिन उनकी यह खुशी भी बहुत दिनों नही टिक सकी। नीता ने स्वयं और अपनी बेटी को अपने कमरे तक ही सीमित कर लिया था। वह बिना ज़रूरत कमरे के बाहर ही न निकलती। वृंदा जी खुद ही कई बार बहाने से उसके कमरे में जाकर लतिका को ले आतीं।

नीता की नादानी इस हद तक बढ़ गई थी कि उसे यह भी फ़िक्र नहीं थी कि दिन भर में उसके बूढ़े सास-ससुर क्या खाएँगे। वो सुबह रजत के जाते ही अपने कमरे में बंद जो जाती फिर शाम तक बाहर निकलने का नाम न लेती। रजत से कहने का कुछ लाभ न था। जब कभी वृंदा या सतीश जी कुछ कहने की कोशश करते तो रजत सुने का अनसुना कर देता या उन्हें ही उल्टा सुना देता था। नीता भी अब आश्वस्त हो गयी थी कि रजत के आगे मेरे सास-ससुर की कुछ नहीं चल सकती और रजत अब मेरे ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं सुनेगा। इन सब बातों से उसे और बल मिलने लगा। अब तो वो रजत का भी ध्यान नहीं रखती थी। 

अब वो ऑफिस से रजत के आने का इंतज़ार करती ताकि कुछ काम हो। बिटिया होने के बाद तो उसने बिल्कुल ही हाथ खड़े कर दिए थे। बेचारा रजत दिन भर ऑफिस की भाग दौड़ में लगा रहता और घर पहुँचकर भी नीता के बताए कामों में उलझा रहता फिर रात में बच्ची के रोने पर उसे भी घुमाता रहता। इन सब बातों से रजत की सेहत पर भी असर पड़ने लगा। लेकिन मूर्ख नीता को अब भी अक्ल नहीं आई कि जिस पति के दम पर वह ऐश कर रही है अगर वही स्वस्थ नहीं रहेगा तो क्या होगा?

वृंदा जी और राजेश यह सब देख मन ही मन घुलते; लेकिन कर भी क्या सकते थे। उनके पुत्र ने उनके मुँह पर ताला लगा रखा था। एक दिन अचानक रजत की तबियत ज़्यादा खराब हो गई। इसका कारण अत्यधिक काम व नींद पूरी न होना था। डॉक्टर ने उसे कम से कम पंद्रह दिनों का बेडरेस्ट बताया। इन पंद्रह दिनों में रजत ने नीता की दिनचर्या अच्छे से जान ली। माता-पिता की जिन बातों को वह झूठ मान रहा था और सास-ससुर की असुरक्षा की भावना समझ रहा था; वह सच निकलीं थीं। 

उसे अब अपनी गलतियों का अहसास हो रहा था। सही मायनों में आज उसका मोहभंग हो गया था। रजत ने तुरंत ही नीता को अपने पास बुलाया और बहुत साफ़ शब्दों में समझा दिया कि एक पत्नी, माँ और बहू होने के नाते उससे क्या उम्मीदें हैं। साथ ही यह भी कहा कि अब वह किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं करेगा। रजत का बदला रूप देखकर नीता को भी समझ में आ गया कि अब उसे परिवार में अपनी भागीदारी निभानी पड़ेगी।

स्वरचित एवं अप्रकाशित
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'
हिंदी अध्यापिका
दिल्ली पब्लिक स्कूल
बंगलुरु (कर्नाटक)